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________________ १०४ : पंचलिंगीप्रकरणम् चतुर्थलिंग : अनुकम्पा सम्मदिट्ठी जीवो अणुकम्पपरो सयावि जीवाणं। भाविदुःखविप्पओगं ताण गणंतो विचिंतेइ ।। ५३ ।। सम्यग्दृष्टिः जीवोऽनुकम्पापरो भावीदुःखविप्रयोगं तेषां गणयन् सदाऽपि जीवानाम् । विचिंतयति ।। ५३ ।। सम्यग्दृष्टि जीव होता, अनुकम्पापरक सदा ही जीवों पर । कैसे हो उनके भाविदुःख दूर, यही सोचता वह निरन्तर ।। ५३ ।। ५३. जीव पर अपुकम्पापरायण (करुणाभाव युक्त) सम्यग्दृष्टि आत्मा सदैव ही जीवों के भावी (आने वाले समय में) दुःख दूर कराने की इच्छा करता हुआ उनके विषय में ही सोचता रहता है। भावार्थ : उपशम, संवेग व निर्वेद लक्षणों से युक्त सम्यग्दृष्टि जीव सदा ही जीवों पर अनुकम्पा करने वाला, करुणामय चित्त वाला होता है। दानादि द्वारा अभाव मिटाने से वह बाह्य (द्रव्य) अनुकम्पापरक तथा मिथ्यादृष्टि क्रूर व्यक्तियों को सम्यक् बोधि देने से वह अन्तःकरण से भी (भाव) अनुकम्पापरक होता है। वह समस्त जीवों का भाविदुःख से विरह-वियोग हो, उनके सब दुःख दूर हों ऐसी भावना वाला होता है तथा उसका चिंतन भी सदैव इसी बारे में चलता है कि लोक के सब दुःखों से संतप्त प्राणियों के दुःख-संताप कैसे दूर किये जाएँ।
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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