SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८६ : पंचलिंगीप्रकरणम् तं सुरविमाणविहवं चिंतिय चवणं च देवलोगाओ। अइबलियं चिय जन्न वि फुट्टइ सयसक्करं हिययं ।। ४४ ।। तं सुरविमानविभवं चिन्तयित्वा च्यवनं च देवलोकात्। अतिबलिकमेव यत् नापि स्फुटति शतशर्करं हृदयम् ।। ४४।। उस देव-विमान के वैभव का चिंतन कर देव, देवलोक से च्यवन की करते चिन्ता वहीं। हृदय कितना निष्ठुर फिर भी, . शत खण्डों में टूट गिरता नहीं ।। ४४ ।। ४४. उस देव को अपने देवविमान सम्बन्धी वैभव और स्थितिक्षय से सुरलोक से च्युत होने के विचार से वेदना (भयंकर दुःख की अनुभूति) होती है तथापि उसका हृदय शतखण्डों (सैंकड़ों टुकड़ों) में विभाजित होकर नष्ट नहीं होता है क्योंकि वह अतिबलिक (वज्रमय) भावार्थ : अनिष्ट संयोग के पश्चात् शास्त्रकार इष्टवियोग के दुःख की ओर इंगित करते हैं और कहते हैं कि देव अपने भोगे गए एवं भोग्य स्वर्गिक सुखों का स्मरण करता हैं तथा तत्क्षण ही उसे अपने आसन्न च्यवन व तिर्यंच गति में पुनर्जन्म की संभावनाओं का स्मरण हो आता है अथवा ज्ञान हो जाता है। फिर भी उसका हृदय कितना अतिबलशाली व वज्रसम कठोर है कि वह शत कपालिकाओं या टुकड़ों में विभक्त नहीं हो जाता है, टूटकर गिर नहीं जाता है।
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy