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________________ ८४ : पंचलिंगीप्रकरणम् देवोवि पुढवीकाए उववज्जिउकामु तं विचिंतेइ। जं जिणवराउ अन्नो वागरिउं जे समत्थो को।। ४३।। देवोऽपि पृथिविकाये उत्पत्तुकामः तत् विचिन्तयति। यत् जिनवरात् अन्यः व्याकत्तुं समर्थः कः (खलु)।। ४३ ।। देवगण भी पृथ्विकायादि जन्म-संभावना, ___ सोच जानकर होते चिंतित। उस चिंता का वर्णन भी, जिनेश्वर बिन कौन करे समुचित ।। ४३ ।। ४३. देव भी (अपने अवधिज्ञान से) पृथ्विकाय में उत्पन्न होने के बारे में जानकर जो चिन्ता (आर्तध्यान) करता है, उसे कहने में भी जिनेश्वरदेव के अतिरिक्त कौन समर्थ है? अर्थात् कोई नहीं। __ स्वर्गस्थ देवगण अपने सभी स्वर्गिक सुखों के मध्य भी इस चिंता में निमग्न रहते हैं कि कहीं स्वर्ग से च्यवित होने के पश्चात् उन्हें पृथिविकायादि तिर्यंच गति में जन्म न लेना पड़े और यदि वे अपने अवधिज्ञान के माध्यम से यह जान लेते हैं कि स्वर्ग से च्यवित होनेपर उन्हें पृथ्विकायिक जीव के रूप में ही जन्म लेना है तो वे अत्यन्त आर्त होकर जो चिन्ता करते हैं उस चिंता का यथार्थ वर्णन भी केवल जिनेश्वरदेवों द्वारा ही संभव है, अन्य किसी के द्वारा नहीं।
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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