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________________ ६० : पंचलिंगीप्रकरणम् चेइयजइसु बज्जुज्जइ जत्तियमत्तं तदेव सहलंति । अन्नमणत्थमणत्थस्स वट्टयं मुणइ णिच्चपि ।। ३१ ।। चैत्ययतिषु उपयुज्यते यावन्मात्रं अन्यदनर्थमनर्थस्य वर्द्धकं मन्यते तदेव सफलमिति। नित्यमपि ।। ३१।। देव-गुरु के उपयोगार्थ हो जितना, उतना ही है अर्थ सफल । अन्य-द्रव्य को नित्य ही माने, अनर्थ-वर्द्धक और निष्फल ।। ३१।। ३१. (जो व्यक्ति) देव और गुरु (को दान में दिये जाने से) के उपयोग में आ सके उतने प्रमाण में द्रव्य अर्थात् धन-धन्यादि संपदा को तो सफल यानि सार्थक मानता है तथा उससे इतर द्रव्य को सदा सर्वदा अनर्थ-वर्द्धक तथा निष्फल मानता है (वही व्यक्ति संविग्न अर्थात् मोक्षाभिलाषी है)। संवेगवान व्यक्ति के कुछ और गुणों का उल्लेख करते हुए आचार्य कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति अपने द्वारा देव-गुरु को दिये गए दान के द्वारा उनके उपयोगार्थ जितना द्रव्य खर्च होता है उसीको सार्थक मानता है तथा अन्य द्रव्य जो स्वयं के व परिवार की सुख-सुविधा के लिये खर्च किया जाता है उसे निरर्थक ही नहीं अपितु अनर्थकारी भी मानता है। इसके कारण का खुलासा करते हुए वे कहते हैं कि जो धन सांसारिक कार्यो के लिये खर्च किया जाता है वह तो संसार परिभ्रमण को बढ़ाने वाला होने से अनर्थकारी ही है।
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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