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ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन
निखार व रक्षण के लिए संस्कारों का संरक्षण अनिवार्य है । 9. अतिथि देवो भव: "
माता-पिता और गुरु के पश्चात् जिसे देवस्वरूप में ग्रहण किया गया है, वह अतिथि ही है अर्थात् घर पर जो मेहमान आता है, उसका सम्मान भी मातापिता व गुरु के समान ही किया जाना चाहिए। एक लोक कहावत में आगन्तुक को सहोदर के रूप में स्वीकार करते हुए कहा गया है- " घर आयो मां जायौ बराबर हुवै।" जैन संस्कृति में 'अतिथि' शब्द को परिभाषित करते हुए कहा गया है- अतिथि यानी जिसके आने की तिथि तय न हो या जो बिना पूर्व सूचना के आता है। जैन संस्कृति में श्रमण को भी अतिथि कहा गया है। आवश्यकसूत्र में अतिथि संविभाग का भी उल्लेख मिलता है । 1
10. शरणागत वत्सलता
शरणागत की रक्षा करना मानव मात्र का परम कर्त्तव्य है, यह भारतीय संस्कृति का संदेश है। भारतीय संस्कृति में शरणागत वत्सलता की पराकाष्ठा को छूते हुए कहा है कि यदि शत्रु भी शरण में आ जाता है तो उसके प्राणों की रक्षा करना मानव का दायित्व है । शरणागत वत्सलता उदारता व क्षमा पर आधारित अवधारणा है।
जैन कथाओं± में राजा मेघरथ को इस गुण की दृष्टि से आदर्श रूप में प्रस्तुत किया गया है । राजा मेघरथ ने शरण में आए कबूतर की रक्षा के लिए अपना मांस काटकर बाज को दे दिया पर उस कबूतर को गिद्ध को नहीं दिया और उसे बचा लिया । शरणागत वत्सलता से अभिप्राय केवल आश्रय देना ही नहीं है, बल्कि अपने जीवन को बलिदान करके भी शरणागत की रक्षा करना, उस पर वार नहीं करना यानी येन-केन-प्रकारेण उसकी रक्षा करना ही शरणागत वत्सलता माना गया है।
11. ऋण का भाव
जैनागमों में तीन प्रकार के ऋण से उऋण होना कठिन माना है यथा- 1. माता-पिता का, 2. स्वामी का, 3. धर्माचार्य का । भारतीय संस्कृति में पाँच प्रकार ऋणों का नामोल्लेख मिलता है। 64 इनसे उऋण हुए बिना मुक्ति की कल्पना नहीं की जा सकती है। ये ऋण हैं- 1 - 1. देव ऋण, 2. ऋषि ऋण, 3. पितृ ऋण, 4.
अतिथि ऋण, 5. भूत ऋण ।
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