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ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन होता है बल्कि लड़की के अपहरण की फरियाद करते समय बहुमूल्य भेंट देते हुए कहता है कि- 'हे देवानुप्रियों! विपुल धन व कनक वापिस मिले वह समब तुम्हारा होगा और सुंसुमा दारिका मेरी होगी। (1/18/26)'
कवि बाण ने लिखा है कि पुत्री उत्पन्न होते ही पिता को चिन्ता में डाल देती है। ज्ञाताधर्मकथांग में राजा द्रुपद अपनी पुत्री द्रौपदी के विवाह को लेकर चिन्तित होता है- किसी राजा अथवा युवराज की भार्यो के रूप में तुझे दूंगा तो कौन जाने वहाँ तुम सुखी रहोगी या दुःखी? यदि दुःखी हुई तो मुझे जिन्दगी भर हृदय में दाह होगा। पुत्री के दुःख-दर्द को पिता द्वारा दूर करने का प्रयास किया जाता था। परित्यक्ता सुकुमालिका को पिता सागरदत्त कर्म की विचित्र गति को प्रेमपुर्वक समझाते हुए उसे चिन्ता मुक्त करता है तथा उसे धर्माभिमुख करने के लिए उसके लिए दानशाला की व्यवस्था करता है।” मल्लीकुमारी के कहने पर मोहनगृह, जालगृह, मणिमय पीठिका आदि का बनवाना ही इस बात को स्पष्ट कर देता है कि पुत्री को भी अनेक सुविधाएँ और अधिकार प्राप्त थे। मल्लीकुमारी जब राजा कुंभ को जितशत्रु प्रभृति आदि छहों राजाओं के साथ युद्ध में हार जाने पर चिन्तित देखती है, तब वह कहती है कि- "तात! आप चिन्ता मत कीजिए
और उन छहों राजाओं के पास गुप्त रूप से अलग-अलग दूत भेजकर कहला दीजिए कि मैं अपनी कन्या तुम्हें देता हूँ।" मल्लीकुमारी के कहने पर कुम्भ राजा ने ऐसा ही किया। इससे स्पष्ट है कि पुत्री की बात को भी महत्व दिया जाता था।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि कहीं पुत्री की उपेक्षा अवहेलना है तो कहीं मान-प्रतिष्ठा और सम्मान भी, लेकिन यह बिल्कुल सत्य है कि पुत्री की उतनी ही आवश्यकता है जितनी पुत्र की, क्योंकि पुत्री-कन्या के अभाव में परिवार की परम्परा कायम नहीं रह सकेगी। पुत्रवधू ___परिवार में पुत्रवधू की भी अहं भूमिका होती है। ज्ञाताधर्मकथांग में धन्य सार्थवाह की चार पुत्रवधुएँ थी। धन्य सार्थवाह द्वारा परिवार-संचालन के लिए पुत्रों को नहीं चुनकर पुत्रवधुओं को चुनना बहू की महत्ता को उजागर करता है। इसके लिए धन्य सार्थवाह पाँच-पाँच शालिकण देकर उनकी परीक्षा करता है, परीक्षा में सबने अपनी बुद्धि एंव नामानुरूप प्रदर्शन किया और उन्हें उसी के अनुरूप कार्यभार सौंपा गया।
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