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________________ 218 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति दान देने वाले सम्पन्न पड़ोसी से ईर्ष्या करना इस अतिचार के अन्तर्गत आते संलेखनावत जीवन के अन्तिम समय में अर्थात् मृत्यु आने के समय तक तप विशेष संलेखना कहलाता है। इसकी विधि का विस्तृत विवेचन किया गया है। यद्यपि संलेखना की विधि से कुछ व्यक्तियों को आत्मघात का भ्रम होता है किन्तु सम्यक् परिशीलन से यह भ्रान्ति दूर हो जाती है।243 पूज्यपाद का कहना है कि आत्मघात राग दोष के कारण किया जाता है जब कि संलेखनाव्रत लेने वाले का राग द्वेष पहले ही उपशान्त हआ रहता है।244 संलेखना को उस अवस्था में न्यायसंगत माना जायेगा। यदि शरीर व्रतों के अनुपालन की दृष्टि से असमर्थ हो गया हो। संलेखना दुर्भिक्ष, विपत्ति, वृद्धावस्था, रोग तथा आध्यात्मिक क्रियाओं के करने में बाधा उपस्थित हो जाये तो सम्मत है।245 संलेखना उस समय भी की जा सकती है यदि प्राकृतिक मृत्यु आसन्न हो।246 आत्म नियन्त्रण द्वारा मृत्यु का स्वेच्छिक वरण उस अवस्था से श्रेष्ठतर है जिसमें उस जीवन को निरर्थक रूप से बचाया जाये जिसकी चिकित्सक भी सहायता नहीं कर पा रहे हों।247 जिस समय इन्द्रिय शक्तियां क्षीण हो जाती हैं तब आत्म नियन्त्रण संलेखना से अधिक कठिन हो जाता है। यदि अन्त समय में मस्तिष्क नियन्त्रित व शुद्ध नहीं रहे तो जीवन भर का आत्म नियन्त्रण, तपस्या, स्वाध्याय, उपासना और दान व्यर्थ हो जाता है। जिस प्रकार कि शस्त्रनिपूण्ण राजा का सारा कौशल अकारथ हो जाता है यदि युद्ध भूमि में जाकर वह मूर्छित हो जाये।248 संलेखना लेने वाले को स्नेह और बैर को त्याग कर सर्वक्षमादान करना चाहिए और सबसे क्षमा की याचना करनी चाहिए। अपने कृत, कारित तथा अनुमत दुष्कार्यों का प्रायश्चित करना चाहिए। उसे असन्तोष, दुख:, भय तथा क्लेश से निर्बन्ध होकर सबसे पहले ठोस आहार त्यागना चाहिए, फिर द्रव्य मेवों को और अन्त में अम्लपेयों को249 फिर सिर्फ अनशन करे तथा अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा मुनि का स्मरण कर शरीर त्यागे। दिगम्बर परम्परा में संलेखना के पांच अतिचार माने गये हैं 250 : (1) जीविताशंसा–जीने की इच्छा, (2) मरणाशंसा-मरने की इच्छा, (3) मित्रानुराग-मित्रों की स्मृति,
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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