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________________ ___182 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति रखा है (1) मा रूपादि रखं पिपासा सुदृशाम्-ब्रह्मचारी रूप, रस, गन्ध, स्पर्श तथा शब्द के रसों को पान करने की इच्छा न करे। (2) मा वस्तिमोक्षं कृथा-वह ऐसा कार्य नहीं करने की इच्छा न करे। (3) वृष्यं मा भज-वह कामोद्दीपक आहार न करे। (4) स्त्रीशयनादिकं च मां भज-स्त्री तथा शयन आसन आदि का प्रयोग न करे। (5) वराड.गे दृशं भा दा–स्त्रियों के अंगों को न देखे। (6) स्त्री मा सत्कुरु-स्त्रियों का सत्कार न करे। (7) मा च संस्कुरु-शरीर संस्कार न करे। (8) रतं वृतं मा स्मर-पूर्व सेवित का स्मरण न करे। (9) वय॑न् मा इच्छ-भविष्य में क्रीड़ा करने की न सोचे। (10) इष्ट विषयान् मा जुजस्व-इष्ट रूपादि विषयों से मन को युक्त न करे। वेद अथवा उपनिषद में ऐसे शृंखलाबद्ध नियमों का उल्लेख नहीं मिलता। दक्षस्मृति के अनुसार-स्मरण, क्रीड़ा, देखना, गुह्यभाषण, संकल्प, अध्यवसाय और क्रिया यह आठ प्रकार के मैथुन हैं। इनसे विलग होकर ब्रह्मचर्य की रक्षा करनी चाहिए। सर्वमैथुन विरमण के लिए जैन धर्म में मन, वचन एवं कर्म से मैथुन करने तथा करवाने के अनुमोदन का निषेध है। मैथुन को अधर्म का मूल तथा महादोषों का स्थान कहा गया है। श्रमण अथवा श्रमणी के संदर्भ में इस व्रत का अर्थ है सम्भोग से पूर्णत: विरत रहना। सम्भोग के कर्म के साथ-ही-साथ सम्भोग से सम्बन्धित विचार भी अवांछनीय तथा अनैतिक माने गये हैं। जैन श्रमण को आदेश है कि वह मनोहर चित्रों से आकीर्ण, माल्य और धूप से सुवासित, किवाड़ सहित, श्वेत चन्दोबा से युक्त स्थान की मन से भी कामना नहीं करे क्योंकि काम राग को बढ़ाने वाले वैसे उपाश्रय में इन्द्रियों का निवारण करना भिक्षु के लिए दुष्कर होता है। इसलिए एकाकी भिक्षु श्मशान में, शून्य गृह में, वृक्ष के मूल में अथवा परकृत एकान्त स्थान में रहने की इच्छा न करे। परमसंयत भिक्षु प्रासुक, अनाबाध और स्त्रियों के उपक्रम से रहित स्थान में रहने का संकल्प करे। ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए साधु स्निग्ध और पौष्टिक आहार न करे।
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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