SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन संघ का स्वरूप • 167 238. आचारांग, एस० बी०ई० जि० 22, पृ० 137। 239. द्र० बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ० 151। 240. आचारांग, एस० बी०ई० जि० 22, पृ० 1361 कल्पसूत्र, एस०बी०ई० जि० 22, पृ० 296 | 241. बौधायन-2, 6,11, 20: द्र० जैकोबी का इन्ट्रोडक्शन एस० बी०ई० जि० 22 | 242. वही, पृ० 136-1371 आचारांग एस० बी०ई० जि० 22, पृ० 138-39। 243. 244. हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 1561 245. ऐसी अवस्था में जैन साधु को आदेश है कि वह मार्गशीष के पूर माह में उसी स्थान पर वास करे जहां उसने वर्षाकाल व्यतीत किया है। 246. गौतम एस० बी०ई० जि० 2, 3, 13: बौधायन एस० बी०ई० जि० 2, 6, 11, 20: महावग्ग, 3, 11 तथा आचारांग एस० बी०ई० जि० 2, 3, 1-4 पृ० 136: कल्पसूत्र एस० बी०ई० जि० 22, पृ० 2961 247. द्र० स्टडीज इन बुद्धिस्ट एण्ड जैन मोनैकिज्म, पृ० 169 248. आचारांग एस० बी०ई० जि० 22, पृ० 137 । 249. महावग्ग, 31/1 : द्र० स्टडीज इन बुद्धिस्ट एण्ड जैन मोनैकिज्म, पृ० 169 । 250. कल्पसूत्र एस० बी०ई० जि० 22, पृ० 296 1 251. द्र० बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ० 152 । 252. आयारो, लाडनूं संस्करण, पृ० 218, सूत्र 821 253. आचारांग एस० बी०ई० जि० 22, पृ० 11, अध्याय 1-3। 254. द्र० जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ० 394 । 255. वही, तु० मज्झिमनिकाय - 11 राहुल सांकृत्यायन, हिन्दी अनुवाद लटिकोपमसुत्त, पृ० 1321 256. . जैकोबी के अनुसार म्लेच्छ से अभिप्राय वरवर, सरवर तथा पुलिन्द्र से है । अनार्य वह है जो 361/2 प्रदेश में नहीं रहते हैं । जैनसृत्रज, भाग-1, पृ० 137 1381 257. आचारांग एस० बी०ई० जि० 22, पृ० 137-381 258. वही 259. वही 260. वही, पृ० 139 : बृहत्कल्पभाष्य, 4/5629-33 के अनुसार श्रमण विद्वेषी साधुओं को नौकारूढ़ होने के उपरान्त उन्हें कष्ट पहुंचाने के लिए अपनी नाव को नदी के प्रवाह या समुद्र में डाल देता था। कभी कोई नाविक साधुओं अथवा उनकी उपधि पर जल के छींटे डालता था साधु को जल में फेंक देता तब मगर जैसे जलचर जीवों तथा चोरों से साधुओं को उपसर्ग का भय हो सकता था। द्र० जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ० 3961 261. आचारांग, एस० बी०ई० जि० 22, 14:431 262. वही, पृ० 1451 263. वही, पृ० 146-47। 264. पं० दलसुख मालवणिया, निशीथ एक अध्ययन, पृ० 65-661 265. व्यवहारभाष्य, 5/72 के अनुसार प्रवर्तिनी यद्यपि अध्यक्षा थी किन्तु फिर भी उस पर कुछ प्रतिबन्ध थे। उदाहरण के लिए वह अकेली विहार नहीं कर सकती थी। वर्ष के ग्रीष्म और शीत के आठ माह उसे दो अन्य श्रमणियों के साथ व्यतीत करने होते थे तथा वर्षाकाल
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy