SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 162 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति 137. एक उपदेश वार्ता के क्रम में बुद्धदेव अजातशत्रु से पूछते हैं कि क्या ऐसे भूतपूर्व दास को जो संघ का सदस्य बन गया है, अपना दास मानेंगे और उसे पुन: दासकर्म करने के लिए बाध्य करेंगे। राजा का उत्तर नकारात्मक है। यही कारण है कि बुद्ध ने सामाजिक असन्तुलन से समाज और संघ को बचाने के लिए नियमों का निर्माण किया। 138. जैन संघ में प्रव्रज्या निषेध के नियमों के लिए द्र० स्थानांगसूत्र, जि०, पृ० 242-51: बौद्ध संघ के निषेध के लिए : महावग्ग नालन्दा संस्करण पृ० 76-82: द्र० हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 140 : दी एज आफ विनय, पृ० 116। 139. महावग्ग, पृ० 76: द्र० दी एज आफ विनय, पृ० 116। 140. वातिक का सामान्य अर्थ बात रोगी है किन्तु इसकी व्याख्या यौनविकृत व्यक्ति के अर्थ में की गयी है। द्र० हिस्ट्री आफ जैन मोनैकिज्म, पृ० 140। 141. दी एज आफ विनय, पृ० 1161 142. बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास. प० 141 143. स्वयं महावीर ने परिव्राजक नियम स्वीकार करने के लिए तथा प्रव्रज्या के लिए अपने भाई से अनुज्ञा प्राप्त की थी। कल्पसूत्र एस० बी०ई० जि० 22, पृ० 256 तथा राजीमती ने भी प्रव्रज्या करने के लिए माता-पिता से अनुज्ञा प्राप्त की थी। उत्तराध्ययन एस० बी०ई० जि० 45 अध्याय 22-आज भी जैन संघ में प्रव्रज्यार्थी को अपने सांसारिक अभिभावकों से अनापत्ति घोषणा पत्र लाना होता है। परिवार वालों से आज्ञापत्र पूर्व में लिया जाता है जिसमें मुख्यजन लिखित में घोषणा करते हैं कि वह सहर्षसंघ को इस या उस व्यक्ति को समर्पित कर रहे हैं। यह घोषणापत्र हस्ताक्षरयुक्त होता है ताकि संघ ने बच्चा, पति, पत्नी आदि चुरा लिया, अपहरण कर लिया है जैसा विरोध न हो सके। 144. आचारांग एस०बी०ई० जि० 22, पृ० 1991 145. द्र० जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ० 387। 146. एहि भिक्खु, स्वाक्खातो घम्मो, चर ब्रह्मचरियं सम्मा दुक्खस्स अन्तकिरियाय। जटिलों और राजगृह में संजय बेलट्ठिपुत्र के शिष्यों ने भी इसी प्रकार प्रव्रज्या प्राप्त की थी। महावग्ग नालंदा संस्करण, पृ० 15-16,25,33,41। 147. वही, पृ० 14: द्र० बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ० 1401 148. प्रतीत होता है कि अल्पवय एवं अपरिपक्व भिक्षुओं के संघ में प्रवेश के कारण प्रव्रज्या और उपसम्पदा का भेद स्थापित हुआ। जब भिक्षुओं की संख्या बढ़ी तब वह तथागत के प्रत्यक्ष संपर्क में भी कम आ पाते थे अत: उपसम्पदा के नियम में परिवर्तन हो गया। 149. दी एज आफ विनय, पृ० 113-151 150. जी०एस०पी० मिश्र, “सम रिफलैक्शन्स आफ अर्ली जैन एण्ड बुद्धिस्ट मोनैकिज्म' जिज्ञासा नं0 3-4, जुलाई अक्टूबर 1975, पृ० 11। 151 बौद्ध पालि विनय में सामान्य दान्त में परिवीक्षा के विषय में कोई विशेष काल निर्धारित नहीं है। महावग्ग: नालन्दा संस्करण, पृ० 73 में अवश्य ही ऐसा उल्लेख है कि यदि भिन्न मत का व्यक्ति संघ में प्रवेश की अनुज्ञा चाहे तो उसे चार माह की परिवीक्षा पर रखा जाता था। यहां चार माह का काल अनुमानित इसलिए कहा गया है क्योंकि जैन संघ में यह इतना ही है। जिज्ञासा, नं0 3-4, जुलाई-अक्टूबर 1974, पृ० 121 152. श्री स्थानांगसूत्र, खण्ड-2, पृ० 23। 153. जगदीशचन्द्र जैन, पूर्वोक्त, पृ० 132, पादटिप्पण-1। 154. जिज्ञासा नं0 3-4, जुलाई अक्टूबर 1974, पृ० 121
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy