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________________ 154 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति संदर्भ एवं टिप्पणियां 1. तीर्थंकर का शाब्दिक अर्थ है धर्म का प्रवर्तक। जैनों के अनुसार जिसने संसार सागर तैरकर पार कर लिया पारगामी तीर्थंकर है। इसी अर्थ में अन्य भी इसे स्वीकारते हैं। प्रो० लासेन के अनुसार बौद्धानुयायियों ने इसे महावीर की उपाधि के रूप में लिया बुद्ध के लिए इसे प्रयुकत नहीं किया। ठीक उसी प्रकार जैसा तथागत बुद्ध, सम्बुद्ध आदि शब्दों का प्रयोग जैन नहीं करते। द्र० जैनसूत्रज जि० 2, पृ० 201 2. यह वाराणसी के राजा अश्वसेन के पुत्र तथा इक्ष्वाकु कुल के क्षत्रिय थे। सौ वर्ष की आयु में सन् 776 ई०पू० में उनका देहान्त वाराणसी में हुआ। पार्श्व को यह नाम किंवदन्ती के अनुसार दिया गया कि इनके जन्म के पूर्व इनकी मां ने अपने पार्श्व में रेंगता हुए काला नाग देखा था। द्र० कल्पसूत्र (एस०बी०ई०), जि० 22, पृ० 2721 3. जैन सूत्रज भाग-2, एस० बी०ई० जि० 45, भूमिका, पृ० 141 4. राजेश्वरप्रसाद चतुर्वेदी, जैन धर्म, पृ० 1। 5. केशी की स्तुति इस प्रकार की गयी है केश्यग्नि केशी, विषं केशी बिर्भति रोदसी। केशी विश्वं स्वदृशे केशीदं ज्योतिरुच्यते।। - ऋग्वेद, 10/136/11 केशी की यह स्तुति वातरशना श्रमण ऋषि तथा उनके अधिनायक ऋषभ और उनकी साधनाओं से तुलनीय है। ऋग्वेद के वातरशना और भागवत पुराण के वातरशना श्रमण ऋषि नि:सन्देह एक ही सम्प्रदाय के वाचक हैं। केशी का अर्थ केशधारी होता है। यद्यपि सायण ने इसका अर्थ केशस्थानीय रश्मियों को धारण करने वाला सूर्य किया है। किन्तु यह संगति सार्थक प्रतीत नहीं होती क्योंकि ऋषभ भगवान के कुटिल केशों की परम्परा जैन मूर्तिकला में प्राचीनकाल से आज तक अक्षुण्ण है। ऋषभदेव को केसरियानाथ भी कहा जाता है। उल्लेखनीय है कि केसर केश और जटा एक ही अर्थ के वाचक हैं। सिंह भी केशों के कारण ही केसरी कहलाता है। इसी प्रकार ऋग्वेद में अन्यत्र-कर्कदेवे वृषभोयुक्त आसीद् अवावचीत् सारथिरस्य केशी दुधर्युक्तस्यद्रव्रत: सहानस ऋच्छन्ति मा निष्पदो मुदगलानीम - ऋग्वेद, 10/102/6 केशीवृषभ को सारथी बनाना उनका एक ही पुरुष होना सिद्ध करता है। द्र० हीरालाल जैन : जैन धर्म का उद्गम और विकास, पृ० 14-16। 6. अरिष्टनेमि महाभारत कालीन बाईसवें तीर्थंकर थे। वह शौरीपुर के यादव राजा अंधकवृष्णि के पौत्र तथा वासुदेव कृष्ण के चचेरे भाई थे। जरासंध के आतंक से त्रस्त शौरीपुर के यादव द्वारिका जा बसे थे। इनका विवाह गिरनार-जूनागढ के राजा उग्रसेन की कन्या राजुलमती से निश्चित हुआ था। किन्तु विवाह के दिन लग्न होने से पूर्व ही यह हिंसामय गार्हस्थिक जीवन से विरक्त होकर श्रमण हो गये और गिरनार पर्वत पर तप करने चले गये। यही कारण है कि महाभारत के शान्तिपर्व में जो भगवान तीर्थवित् के उपदेशों का वृत्तान्त है, वह जैन तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट धर्म के समरूप है। - द्र० जैन धर्म का उद्गम और विकास, पृ० 30: उत्तराध्ययन एस० बी०ई० 45, पृ० 112 तथा आग जैकोबी की टिप्पणियां, पृ० 112-131 7. भागवत पुराण के पांचवें स्कन्ध के प्रथम छ: अध्यायों में ऋषभ देव के वंश, जीवन व तपश्चरण का वृत्तान्त मिलता है जो सभी बातों में जैन पुराण से समता रखता है। उनके माता-पिता के नाम नाभि और मरुदेवी पाये जाते हैं तथा उन्हें स्वायंभू मनु की पीढ़ी का
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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