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________________ 142 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति (7) निर्यापक -बड़े प्रायश्चित को भी निभा सके ऐसा सहयोग देने वाला। (8) अपायदर्शी -प्रायश्चित भंग से तथा सम्यक् आलोचना न करने से उत्पन्न दोषों को बताने वाला। (9) प्रियधर्मा -जिसे धर्म प्रिय हो। (10) अविचलित -जो आपत्काल में भी धर्म से विचलित न हो। __यदि किसी कारणवश अपराधी व्यक्ति पूरा प्रायश्चित एक बार में पूरा नहीं कर पाता तो गुरु उसे उपयुक्त कालखण्डों में बांट देता था। वह अपराधी की इस पाप स्वीकृति को गोपनीय रखता था।306 ___ आलोचना के दस दोष हैं307 (1) आकम्प्य (2) अनुमान्य (3) यद्दष्ट (4) बादर (5) सूक्ष्म (6) छन्न (7) शब्दाकुल -सेवा आदि के द्वारा आलोचना देने वाले की आराधना कर आलोचना करना। -मैं दुर्बल हूं, मुझे थोड़ा प्रायश्चित देना-इस प्रकार अनुनय कर आलोचना करना। -आचार्य आदि के द्वारा जो दोष देखा गया है उसकी आलोचना करना। -केवल बड़े दोषों की आलोचना करना। -केवल छोटे दोषों की आलोचना करना। -आचार्य न सुन पाये ऐसे आलोचना करना। -जोर-जोर से बोलकर दूसरे अगीतार्थ साधु सुनें वैसे आलोचना करना। -एक के पास आलोचना कर फिर उसी दोष की दूसरे के पास आलोचना करना। -अगीतार्थ के पास दोषों की आलोचना। -आलोचना देने वाले जिन दोषों का स्वयं सेवन करते हैं, उनके पास उन दोषों की आलोचना करना। (8) बहुजन (9) अव्यक्त (10) तत्सेवी स्थानांगसूत्र में आलोचना अर्थात् गुरु के समक्ष अपने दोषों का निवेदन के अतिरिक्त नौ अन्य प्रायश्चित भी बताये गये हैं308. (1) प्रतिक्रमणयोग्य-मिथ्या में दुष्कृत-मेरा दुष्कृत निष्फल हो इसका भावनापूर्वक उच्चारण। (2) तदुभव योग्य --आलोचना और प्रतिक्रमण।
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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