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________________ 134 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति विहार अथवा आवास में व्यतीत करते थे वहीं ब्राह्मण संन्यासी वर्षाकाल में एकाकी रहते थे अथवा समूह में निश्चित रूप से कहना कठिन है क्योंकि ब्राह्मण परिव्राजकों अथवा संन्यासियों की आचार संहिता में इस प्रकार के उल्लेख विस्तृत रूप से स्पष्ट नहीं हैं। वर्षावास का काल सामान्यत: चार माह का था।247 जैन श्रमण को आदेश है कि यदि वर्षा के चार माह व्यतीत हो गये हों और मार्ग पर अन्य जैनेतर श्रमण और ब्राह्मण भ्रमण नहीं कर रहे हों तब वह शरदऋतु के पांच या दस दिन तक उसी स्थान पर रुक कर आवास करे जहां वर्षाकाल व्यतीत किया हो।248 पालि विनय से ज्ञात होता है कि बौद्धेतर साधुओं में भी वर्षाकाल में एक ही स्थान पर आवास करने की प्रथा थी।249 उल्लेखनीय है कि आरम्भ में जैन संघ में वर्षावास का काल दो माह दस दिन ही था जो कि पहली बरसात की अपेक्षा बाद की बरसात ‘पच्छिमिका वस्सा' से आरम्भिक माना जाता था। बौद्ध संघ में भी यह समय सत्तर से नब्बे दिन का था जबकि वर्षाकाल सामान्यत: एक सौ बीस दिन का माना जाता है। जैन अथवा बौद्ध भिक्षु पूरे वर्षाकाल में वर्षावास के लिए बाध्य नहीं थे। जैन और बौद्ध संघ दोनों में आरम्भ में वर्षावास की अवधि कम होने का नियचय ही महत्वपूर्ण कारण रहा होगा। __इतना तो निश्चित ही है कि भारतीय वैरागियों का जीवन उपासकों और गृहस्थों पर समर्थन तथा सहयोग के लिए निर्भर था। यदि वैरागी किसी ग्राम अथवा कस्बे में कुछ समय के लिए आवास करें तो ग्रामवासियों अथवा गृहस्थों के लिए उनका पोषण समस्या नहीं था किन्तु यदि वह वर्षा के चार माह निरन्तर उन्हीं के आश्रय में व्यतीत करें तो वह समस्या का रूप ले सकता था। ऐसी अवस्था में यह भी सम्भावना थी कि गहस्थ स्वेच्छा से साधओं का भार उठाना पसन्द नहीं करते। विशेष रूप से जैन श्रमणों के ऐसे कठोर नियम कि वह अपने झोंपड़ी अथवा घर नहीं बनाएंगे, गृहस्थों के लिए उनके आवास की लम्बी अवधि तक व्यवस्था करना पीड़ा अथवा क्लेश का कारण बन सकता था। इस बात को ध्यान में रखते हुए ही सम्भवत: जैन श्रमणों के लिए यह व्यवस्था थी कि वह वर्षावास के पचास दिन साधु के वर्षावास के लिए उचित स्थान की खोज में लगा सकें। क्योंकि इस समय तक लोगों से यह आशा की जाती थी कि वह अपने घरों की छत को ठीक से छा लेंगे, फूस आदि से पक्की कर लेंगे। नाली तथा फर्श आदि को ठीक करके वर्षा के लिए तैयार हो जाएंगे।250 गमनागमन श्रमणों का गमनागमन धर्म प्रचार का महत्वपूर्ण अंग माना जाता था।51 श्रमण वर्ष
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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