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________________ जैन संघ का स्वरूप • 107 अनुसार आचार्य उद्देशनार्थ पढ़ने का आदेश देने वाले, वाचनार्थ पढ़ाने वाले प्रव्रज्या देने वाले तथा उपस्थापना महाव्रतों में आरोपित करने वाले होते हैं। 50 इस प्रकार कुछ आचार्य जनप्रतिबोध का कार्य करने लगे तथा कुछ श्रमण संघ के विस्तार की दृष्टि से योग्य व्यक्तियों का चयन कर उन्हें दीक्षित करने लगे। कुछ दोनों ही कार्य करते थे और कुछ दोनों से ही उपेक्षित रहकर मात्र धर्मोपदेश का कार्य करते थे। आचार्य संघ की आध्यात्मिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था के लिए उत्तरदायी होता था। उसके कर्तव्य इस प्रकार थे - (1) सूत्रार्थ स्थिरीकरण - सूत्र के अर्थ का निश्चय करना । (2) विनय - अनुशासन । (3) गुरुपूजा – आध्यात्मिक दृष्टि से जो उनसे उच्च हो उसकी श्रद्धा करना । (4) सैक्ष्य बहुमान — आध्यात्मार्थियों के प्रति आदर व्यक्त करना। (5) दान प्रति श्रद्धा भक्ति - दानदाता की दान में श्रद्धा बढ़ाना। (6) बुद्धि बलवर्द्धन – विद्यार्थी की क्षमता और बुद्धि को बढ़ाना । आचार्य को इसके अतिरिक्त भी इन बातों पर ध्यान देना चाहिए। 52 (1) कोई आज्ञा देते समय वह सावधान रहे। (2) नव दीक्षित श्रमण पुराने श्रमणों का सम्मान करें। (3) श्रमण सूत्रों को सही क्रम में पढ़ें उसमें उलट-फेर न करें। (4) अध्ययन के लिए उपवास में संलग्न श्रमण को पर्याप्त सुविधा दें। (5) कोई भी कार्य श्रमणों की सहमति से करे । (6) व्यवस्था देखे कि श्रमण की आवश्यकता के अनुसार प्रत्येक श्रमण के पास उपधि हो । (7) श्रमणों के उपकरणों का भी ध्यान रखे। आचार्य के आवश्यक गुण थे कि उसका व्यक्तित्व श्रेष्ठ हो, आत्मप्रशंसा एवं विकृतियों से मुक्त हो। वह शास्त्रों का पण्डित हो तथा उसकी अभिव्यक्ति अच्छी हो ।” संक्षेप में आचार्य पांच आचारों का निधान होता था। यह थे - ज्ञान, दर्शन, चरित्र, तप और वीर्याचार | 24
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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