SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राक्कथन बल दिया है। राग, द्वेष, ऊंच, नीच तथा साम्प्रदायिक भेद-भाव एकता में बाधक तत्व हैं। एकता का आधार भावना न होकर विवेक है। विवेक समाज को जोड़ता है। मानव की महत्ता प्रतिष्ठापित करने के कारण जैन धर्म मानववादी है। मानव को वह अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य तथा अनन्तानन्दयुक्त मानता है। प्रत्येक मनुष्य चाहे वह किसी वर्ण, वर्ग, रूप अथवा जाति का हो देवत्व और पूर्णता प्राप्त करने की पूर्ण क्षमता रखता है। मनुष्य जन्म सरलता से नहीं मिलता। अनेक योनियों में भटकने के पश्चात बड़ी कठिनाई से सांसारिक जीव को मनुष्य जन्म प्राप्त होता है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार जब समस्त अशुभ और पाप कर्मों के विनाश के पश्चात आत्मा शुद्ध पवित्र और निर्मल होती है मानव जन्म की प्राप्ति होती है। जैन तीर्थंकर भी मनुष्य थे। मानव जीवन ने ही उन्हें वह अवसर प्रदान किया था कि वे देवत्व को प्राप्त कर सके। __मानववाद आर्थिक विषमता को सामाजिक बुराइयों का मूल कारण मानता है। आर्थिक विषमता के निराकरण के लिए जैन विचारधारा अपरिग्रह के सिद्धान्त को प्रतिपादित करता है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार धन चाहे कितना ही हो मनुष्य की तृष्णा शान्त नहीं हो सकती क्योंकि वह असीम है। सीमित साधनों से असीम तृष्णा शान्त नहीं की जा सकती। स्थानांगसूत्र में कुल धर्म, ग्राम धर्म, नगर धर्म, राष्ट्र धर्म, संघ धर्म आदि का उल्लेख प्रमाणित करता है कि जैन दर्शन का सम्बन्ध इस संसार के कल्याण से अधिक है तथा लोक हित और लोक कल्याण के प्रति सदैव सजग है। अहिंसा के सिद्धान्त को हिन्दू, बौद्ध और जैनियों सभी ने धर्म और सदाचार का सर्वोच्य मूल्य माना है, तथापि यह सर्वमान्य है कि जैनियों ने इस सिद्धान्त का जितना अक्षरश: पालन करने पर जोर दिया वैसा किसी अन्य भारतीय मत के द्वारा नहीं किया गया। जैन परम्परा में प्रत्येक गतिशील वस्तु यथा जल, वायु, ग्रह अथवा गतिशून्य जैसे पत्थर, वृक्ष आदि में भी जीवनशक्ति को स्वीकार किया गया। इस प्रकार जैन दर्शन पूर्ण जीवनवाद में विश्वास मानने के कारण पूर्ण अहिंसा में विश्वास करता है। जैन अहिंसा सिद्धान्त की कठोरता जैन धर्म की आत्मा और कर्म के सम्बन्ध में अपनाए गए अपनी विशिष्ट धारणा के कारण है। अहिंसा के अपने विशिष्ट सिद्धान्त के कारण जैन भिक्षु अन्य भारतीय मतानुयायियों में भी लोकप्रिय हुए। बहुधा जैन अहिंसा के प्रयोग की कठोरता को गलत ढंग से रखा जाता है। अतिशय अहिंसा का पालन जिसे जैनियों ने अपना आदर्श माना केवल इतस्ततः भ्रमण करने वाले भिक्षुओं द्वारा किया जाता था। शेष के लिए अहिंसा का पालन उसकी स्थिति तथा आध्यात्मिक और धार्मिक प्रगति पर निर्भर करता था। गुजरात और दक्षिण में ऐसे अनेक ऐतिहासिक नायकों का उल्लेख मिलता है जो निष्ठावान और समर्पित जैनी के साथ-साथ कुशल सैनिक भी थे तथा विभिन्न युद्धों में शूरता से लड़े थे। समूह के रूप में जैन समाज शाकाहारी है। जैनियों की शाकाहारिता ने अन्य भारतीय समुदायों को भी प्रभावित किया है।
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy