SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ X प्राक्कथन यह सत्य है कि वैदिक ग्रन्थों में दिगम्बर जैनियों के समान नग्न साधुओं तथा ऐसे मुनियों का उल्लेख मिलता है जो सामान्य वैदिक ऋषियों से भिन्न थे। किन्तु इससे अधिक हम इनके विषय में नहीं जान पाते। वैदिक समाज मूलतः प्रवृतिमार्गी था । कर्म, संसार और संन्यास का उल्लेख वैदिक ग्रन्थों में अपवाद स्वरूप ही मिलता है। प्रो. गोविन्द चन्द पाण्डे अत्यंत प्राचीन समय से भारत में एक स्वतंत्र श्रमण परम्परा विद्यमान मानते हैं। ऋग्वेद के कुछ उद्धरणों से भी वैदिक प्रवृतिमार्ग के समानान्तर निवृत्तिमार्गी परम्परा के प्रचलन का आभास मिलता है। उत्तर वैदिक युग में यज्ञों में बढ़ती पशुबलि और कर्मकाण्ड से उत्पन्न बुराइयों के कारण आरण्यक और उपनिषदों की आलोचना से प्रोत्साहित होकर समानान्तर चलती निवृत्तिमार्गी विचारधारा ने जोर पकड़ा। इसी निवृत्तिमार्गी श्रमण परम्परा के पथ पर ही आगे जाकर जैन और बौद्ध परम्पराएं गतिशील हुईं। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि उपनिषदों ने भले ही श्रमण संस्कृति को मान्यता दी हो उपनिषदों के ऋषि गृहस्थ रहे। कर्म और सन्यास की महत्ता स्वीकार करने के पश्चात भी वैदिक परम्परा ने अपनी प्राचीन सामाजिक बाध्यताओं को नहीं छोड़ा तथा तीन ऋणों का सिद्धान्त वैदिक सामाजिक आचार-विचार का मूल बना रहा जो श्रमण संस्कृति के विरुद्ध था। उपनिषद ग्रन्थ वे अपूर्व स्रोत हैं जिनमें सभी भारतीय दार्शनिक मतों की जड़ें देखी जा सकती हैं। जैन ग्रन्थ आचारांगसूत्र में ऐसे अनेक सूत्र उपलब्ध हैं जो अपने भाव, शब्द योजना और भाषा शैली की दृष्टि से वैदिक परम्परा में माने गए औपनिषदिक सूत्रों के अधिक निकट हैं। आत्मा के स्वरूप के संदर्भ में जो विवरण माण्डूक्योपनिषद में मिलता है, वह आचारांगसूत्र में यथावत् है। उत्तराध्ययन सूत्र, ऋषिभाषित सूत्रकृतांग और आचारांग को समझने के लिए उपनिषद साहित्य का अध्ययन आवश्यक है। विदेहनेमि, बाहुक असितदेवल द्वैपायन पाराशर आदि उपनिषद् ऋषियों का सूत्रकृतांग में सम्मानपूर्वक उल्लेख मिलता है। अनेक उपनिषद ऋषियों को जैन और बौद्ध मत में अर्हत् के रूप में मान्यता दी गई है। पारस्परिक सम्पर्क के परिणामस्वरूप न वैदिक संस्कृति विशुद्ध प्रवृतिमार्गी रह पाई और न ही श्रमण संस्कृति पूर्णत: निवृत्तिमार्गी । जैनियों की श्रमण परम्परा धीरेधीरे केवल मुनियों तक सीमित हो गई। इन मुनियों को जैनियों ने सम्मानित और आदरणीय स्थान अवश्य दिया, किन्तु बहुसंख्यक जैन समाज ने कर्मठ और नियंत्रित गृहस्थ धर्म का ही अनुकरण करना व्यावहारिक मान मेल-जोल से जैन, बौद्ध और ब्राह्मण परम्पराओं ने जिन सिद्धांतों को जन्म दिया उन्हें इस देश में एक-दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता। आचारांग सूत्र में श्रमण और ब्राह्मण का उल्लेख परस्पर प्रतिस्पर्धियों के रूप में नहीं, अपितु सहगामियों के रूप में मिलता है। यज्ञों में प्रचलित हिंसा का यद्यपि जैनागमों उत्तराध्ययनसूत्र तथा आचारांगसूत्र में सर्वत्र निषेध किया गया है, किन्तु वे ब्राह्मणों को उसी नैतिक और आध्यात्मिक पथ का अनुगामी मानते हैं जिस पथ का श्रमण अनुकरण करते हैं।
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy