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________________ 76 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति भोक्ता कैसे हो सकता है? प्रकृति ने पुण्य-पाप किये हैं, तब उचित और न्याय संगत तो यही है कि प्रकृति ही उनका फल भोगे। प्रकृति के कृत पुण्य-पाप का फल यदि पुरुष भोगता है, तो देवदत्त के पुण्य-पाप का फल यज्ञदत्त क्यों नहीं भोगता? जड़ पदार्थ से विश्व की उत्पत्ति मानना भी असंगत है। सूत्रकृतांग में अन्यत्र सांख्य को एकदण्डी मत कहकर भी पुकारा गया है। इस मत के समर्थक आहेत दर्शन की तुल्यता सिद्ध करते हुए कहते हैं कि शरीर पुर है और उसमें जो निवास करता है वह पुरुष है, वह जीवात्मा है। यह जीवात्मा इन्द्रिय और मन से अग्राह्य होने के कारण अव्यक्त है। वह स्वत: अवयवों से युक्त नहीं है, वह सर्वलोकव्यापी एवं नित्य है तथा उसकी नाना योनियों में गति होती है तथापि उसके चैतन्यरूप का कभी नाश नहीं होता, अत: वह नित्य है। उसके प्रदेशों को कोई खण्डित नहीं कर सकता इसलिए वह अक्षय है। अनन्त काल बीत जाने पर भी उसके एक अंश का भी नाश नहीं होता, इसलिए वह अव्यय है। सभी भूतों से पूर्ण सम्बद्ध है, किसी एक अंश से नहीं क्योंकि वह निरंश है। यह विशेषण एकदण्डी मत में आत्मा को देकर उसे आहत दर्शन से श्रेष्ठ बताया गया है। किन्तु जैन चिन्तक आर्द्रक मुनि जैन दर्शन से एकदण्डी मत अर्थात् सांख्य की भिन्नता बताते हुए उनकी आलोचना करते हैं। सांख्य द्वैतवादी दर्शन है जबकि जैन दर्शन अनेकान्तवादी है। सांख्य आत्मा को सर्वव्यापी मानते हैं जबकि जैन शरीर मात्र व्यापी। सांख्यानुसार सभी पदार्थ प्रकृति से अभिन्न हैं जबकि जैन मत में कारण में कार्य द्रव्य रूप में विद्यमान रहता है। पर्याय रूप में नहीं। सांख्य मत में कार्य कारण में सर्वात्मरूप में विद्यमान रहता है जबकि जैन मत में ऐसा स्वीकार नहीं किया जाता। सांख्य मत में पदार्थ को केवल धौव्य माना जाता है जब कि जैन मत में सभी पदार्थ उत्पाद, व्यय और धौव्य से मुक्त माने जाते हैं। यद्यपि सांख्यवादी पदार्थों का अविर्भाव और तिरोभाव मानते हैं। लेकिन वह भी उत्पत्ति और विनाश के बिना नहीं। सांख्य के आत्म विषयक विचारों का खण्डन करते हुए जैन युक्ति देते हैं कि आत्मा को सर्वव्यापी मानना युक्ति सिद्ध नहीं है क्योंकि चैतन्य रूप आत्मा का गुण सर्वत्र नहीं पाया जाता, शरीर ही में उसका अनुभव होता है। इसलिए आत्मा को सर्वव्यापी न मानकर शरीर मात्र व्यापी मानना ही उचित है। जो वस्तु आकाश की तरह सर्वव्यापी होती है, वह गति नहीं कर सकती, जबकि आत्मा कर्म से प्रेरित होकर नाना गतियों में गमनागमन करती है। अत: इसे सर्वव्यापी मानना यथार्थ नहीं है। सांख्यवादी आत्मा में किसी प्रकार का विकार नहीं मानते, उसे सदा एक रूप मानते हैं, ऐसी स्थिति में उसका विभिन्न और गतियों और योनियों में परिवर्तन कैसे हो सकता है? इस जगत में नानाभेद दृष्टिगोचर होते हैं। यह भेद आत्मा को नित्य, कूटस्थ, एकरूप, एकरस, नित्य तथा एक मानने पर सम्भव नहीं
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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