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________________ आगमकालीन धार्मिक एवं दार्शनिक विचार • 71 किसी के नहीं होती तब यह मानना पड़ता है कि मनुष्य के कार्य या अकार्य की सिद्धि या असिद्धि नियति के हाथ में है। अत: नियति को छोड़कर काल, ईश्वर, कर्म आदि को सुख-दुख का कारण मानना अज्ञान है। सब कुछ नियति के प्रभाव से ही प्राणी को प्राप्त होता है। अत: नियतिवादी सुख-दुख प्राप्त होने पर इस प्रकार सोचता है यह मेरे किए हुए कर्मों का फल नहीं है अपितु इसका कारण नियति है। क्रियावादी और अक्रियावादी दोनों नियति के अधीन हैं। इस जगत में कोई ऐसा प्राणी नहीं है जिसे अपनी आत्मा अप्रिय हो। ऐसी दशा में कौन प्राणी अपने आप को कष्ट देने वाली क्रिया में प्रवृत्त होगा? परन्तु कष्ट मिलता है। अतएव यह सिद्ध है कि नियति की प्रेरणा से ही जीव को दुखजनक क्रिया में प्रवृत्ति करनी पड़ती है। जीव स्वाधीन नहीं नहीं है। वह नियति के वशीभूत है। नियति की प्रेरणा से ही जीव को सुख-दुख मिलते हैं। शुभ कार्य करने वाले दुखी और अशुभ कार्य करने वाले सुखी समझे जाते हैं, इससे भी नियति की प्रबलता सिद्ध होती है। इस प्रकार जैनों की दृष्टि में नियतिवादी क्रिया, अक्रिया पुण्य, पाप सुकृत, दुष्कृत आदि का कोई विचार नहीं करते। परलोक या पाप के दण्ड का भय न होने के कारण वह बेखटके नाना प्रकार के सावध कर्मों का अनुष्ठान करते हैं, शब्दादि विषयभोगों में प्रवृत्त होते हैं। अपने सुखभोग के लिए वह बुरे से बुरे कृत्य करने में नहीं हिचकिचाते। सुख-दुख का कारण नियति को मानने से उन्हें कोई दुख नहीं होता, न परलोक की चिन्ता होती है। जिस प्रकार एक सूत का गोला फेंक देने पर अपनी स्वत: नियति से नियंत्रित होता है उसी प्रकार यह संसार एक अन्तर्भूत नियति से स्वत: नियन्त्रति हो रहा है। प्रत्येक मनुष्य के सुख-दुःख की मात्रा नियत है।।95 इस वर्णन का सार यह है कि गोशालक ने एक विशिष्ट पन्थ प्रवर्तक के रूप में अच्छी ख्याति प्राप्त की। 96 गोशालक का आजीवक सम्प्रदाय राज्य मान्य भी हुआ। प्रियदर्शी राजा अशोक एवं उसके उत्तराधिकारी दशरथ ने आजीवक सम्प्रदाय को दान दिया था ऐसा उललेख शिलालेखों में आज भी उपलब्ध है। बौद्धग्रन्थ महावंश की टीका में यह बताया गया है कि अशोक का पिता बिन्दुसार भी आजीवक सम्प्रदाय का आदर करता था। वराहमिहिर198 के ग्रन्थ में भी आजीवक भिक्षुओं का उल्लेख है। आजीवक सम्प्रदाय, त्रिराशिक मत और दिगम्बर परम्परा इन तीनों में कालान्तर में कोई भेद नहीं रहा। शीलांक व अभयदेव जैसे विद्वान वृत्तिकार तक इनका भेद नहीं बता सके।199 होर्नले आजीवकों के अध्ययन में बताते हैं कि वह 'हत्थापलेखन'200 करते थे। जिसका अर्थ है कि आजीवक कमण्डल या भिक्षापात्र नहीं रखते थे किन्तु होर्नले की इस व्याख्या की आलोचना इस आधार पर की जाती है कि उवासगदसाओं में गोशाल को भिक्षापात्र (माण्डम) ले जाते हुए दर्शाया गया है।201 सूत्रकृतांग की व्याख्या करते हुए शीलांक का कथन है कि इसमें आजीवक या
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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