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________________ वाण व्यन्तर मूलपाठ वाणमंतर-जोइस वेमाणिया जहा भवणावासी णवरं- णाणत्तं जाणियव्वं जं जस्स, जाव अणुत्तरा। सेवं भते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ। संस्कृत छाया वानव्यन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिका यथा भवनवासिनः। नवरं नानात्वं ज्ञातव्यं, यद् यस्य, यावद्-अनुत्तराः । तदेवं भगवन! तदेवं भगवन्! इति यावत्-विहरति। शब्दार्थ वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक देव, भवनवासियों के समान जानने चाहिएं। विशेषता यह है कि जिसकी जो भिन्नता है वह जाननी चाहिए। यावत् अनुत्तर विमान तक जानना। हे भगवन्! यह इसी प्रकार है। हे भगवन्! यह इसी प्रकार है। ऐसा कहकर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विशेषार्थ पहले भवन वासियों का दस द्वारों में वर्णन किया गया है। उसी वर्णन के अनुसार वाण व्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिकों का वर्णन समझना चाहिए। भवन वासियों के जहां अस्सी भंग कहे हैं वहां अस्सी भंग और जहां सत्ताईस भंग कहे हैं वहां सत्ताईस भंग वाणव्यंतर आदि के भी समझ लेना चाहिए। भवनवासी और व्यंतर देवों का वर्णन एक समान है। किन्तु ज्योतिषी और वैमानिकों के वर्णन में कुछ अन्तर है। यह बात प्रकट करने के लिए ही कहा गया है कि जिसमें जहां जो विशेषता हो वह जान लेनी चाहिए जैसे ८४ श्री जवाहर किरणावली 868606588885600000000000000308368885608603088856080
SR No.023135
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size19 MB
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