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________________ अन्दर वही आहार जीवन है। उसी पर यह सारा ढांचा खड़ा है। वह न हो तो जीवन भी न होगा। माता-पिता की धातुओं से जो आहार लिया है, वह आहार शरीर में जब तक रहता है, शरीर भी तभी तक रहता है और तभी तक जीवन भी है। वह आहार धीरे-धीरे समाप्त होने लगता है। जब वह समाप्त होने लगता है, तब इधर से आयु भी समाप्त होने लगती है। परिणाम यह होता है कि यह शरीर भी नहीं रहता। यहां नास्तिक कह सकते हैं कि आखिर हमारी ही बात रही। हम कहते हैं-यह शरीर भूतों से बना हुआ है और भूतों के बिखर जाने पर नष्ट हो जाता है। यही बात जैन शास्त्र भी कहते हैं। जैन शास्त्र में भी यही बतलाया गया है कि शरीर रज और वीर्य से बना हुआ है, जब रज-वीर्य समाप्त हो जाता है, तब शरीर भी मर जाता है। जैन शास्त्र जिसे रज-वीर्य कहता है और हम उसे पंचभूत कहते हैं। अन्तर सिर्फ नाम का है। तत्त्व तो दोनों जगह समान हैं। हम कहते हैं-न कोई परलोक से आता है, न कोई परलोक जाता है। अगर परलोक से कोई आता होता तो वह स्वतंत्र होता, लेकिन जैन शास्त्रों के कथन से भी वह स्वतंत्र तो रहा नहीं, किन्तु रज और वीर्य के अधीन रहा। इस प्रकार जैन शास्त्र भी प्रकारान्तर से हमारी ही बात का समर्थन करते हैं। इसके उत्तर में यह पूछा जा सकता है कि जो माता-पिता की धातुओं का आहार लेता है, वह आहार लेने वाला कौन है? उस आहार लेने वाले को क्यों भूले जा रहे हो? झाड़ पृथ्वी और पानी का संयोग लेता है तो क्या पृथ्वी और पानी का संयोग ही झाड़ है ? अगर झाड़ ही नहीं होगा तो पृथ्वी और पानी के संयोग को ग्रहण कौन करेगा? इसी प्रकार जब स्वतंत्र आत्मा है तभी तो वह माता-पिता की धातुओं से आहार लेता है। अगर आत्मा न होता तो आहार कौन लेता? उसने शरीर बांधा है, इसी से भूतों की भी सहायता ली है और जब शरीर की सहायता का त्याग करता है तो भूतों की सहायता का भी त्याग कर देता है। मगर यह सब कुछ करने वाला है आत्मा ही। आत्मा के अभाव में इतना सब कौन करता? अब प्रश्न उपस्थित होता है कि माता-पिता के शरीर से लिया हुआ आहार जब तक रहता है, तब तक जीवन भी रहता है, तो फिर लोग अकाल मृत्यु से क्यों मरते हैं? जितने दिनों के लिए आहार शरीर में है, उतने दिनों तक जीवन रहना ही चाहिए बीच में मुत्यु कैसे हो सकती है ? माता-पिता की धातुओं का लिया हुआ आहार बीच में क्यों समाप्त हो जाता है ? २१६ श्री जवाहर किरणावली 88888888
SR No.023135
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size19 MB
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