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________________ सिद्ध जीवों को कर्म-बंध न होने का यही कारण है कि उन में कर्म आने के छिद्र नहीं हैं। सिद्धों के शरीर ही नहीं है। शरीर कर्म से होता है और सिद्धों में कर्म नहीं है, अतएव शरीर भी नहीं है। प्रश्न होता है-संसारी जीवों में आस्रव रूपी छिद्र होने के कारण कर्मों का निरन्तर आगमन होता रहता है। ऐसी स्थिति में किसी भी जीव को मुक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि-छिद्रों को अगर बंद कर दिया जाय तो कर्म-जल का आना रूक जाता है। नाव में छेद न होगा तो पानी चाहे जितना ऊंचा हो, नाव में नहीं घुसेगा। नाव पानी के ऊपर ही तैरती रहेगी। इसी प्रकार आस्रव रूपी छिद्र बंद कर देने से जीव में कर्मों का आगमन रुक जाता है। आस्रव-छिद्र रोकने का उपाय यह है कि हिंसा को अहिंसा से, झूठ को सत्य से, चोरी को अस्तेय से, मैथुन को ब्रह्मचर्य से, परिग्रह को आकिंचिन्य से, क्रोध को क्षमा से, मान को नम्रता से, माया को सरलता से, और लोभ को संतोष से रोको। इसी प्रकार कर्म-जल आने के समस्त मार्गों को रोक दो। अठारह पापों को रोक देने पर और जीव में पहले का जो कर्म रूपी जल घुसा हुआ है, उसे बाहर निकाल देने पर आत्मा निरंजन, निराकार, निर्लेप हो जायगा। अनुभव करके देखो तो इस कथन की सत्यता में तनिक भी संदेह का अवकाश नहीं रहेगा। - ज्ञानी कहते हैं, अगर इतना तुमसे नहीं हो सकता हो तो प्राथमिक दशा में एक बात का सहारा ले लो। वह यह है: तो सुमरन बिन या कलियुग में, अवर नहीं आधारो मैं बारी जाऊं तो सुमरन पर, दिन दिन प्रेम बधारो।।पदम।। सब का निचोड़ यह है कि और कुछ भी न बन पड़े तो परमात्मा का स्मरण करते रहो। स्मरण ऐसी सरल रीति से भी हो सकता है कि न माला जपनी पड़े न मुंह ही हिलाना पड़े। "श्वास उसास विलास भजन को, दृढ़ विश्वास पकड़ रे !" ऐसा होने पर संसार के अन्यान्य कामों से शरीर को फुर्सत न मिली तो भी काम बन जायगा। संसार के कामों के साथ भगवद् भजन भी चलता रहेगा। इस प्रकार से भजन करते रहोगे तो क्रोध, मोह आदि सब दब जाएंगे। रागादि को जीतने का दूसरा प्राथमिक उपाय यह है कि द्वेष का बदला द्वेष से नहीं देना चाहिए। राजनैतिक में भी द्वेष का बदला प्रेम से देने - भगवती सूत्र व्याख्यान १८१
SR No.023135
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size19 MB
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