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________________ की निंद्रा है। अज्ञान क्या है? है कुछ और, समझना कुछ और ही, यही अज्ञान है। इसी अज्ञान के कारण आत्मा दुःखी हो रही है। अज्ञान छोड़कर देखो कि हम मूछे मरोड़ कर चलते हैं, कमर में बल डाल कर चलते हैं, परन्तु चलते किस पर हैं? अगर पृथ्वी ने आपको आश्रय न दिया होता तो आपकी अकड़ कहां तक निभती? समाचार पत्रों में आप पढ़ते हैं कि अमुक जगह भूकम्प हुआ, जमीन फट गई, फिर भी आप में अंहकार घुसा हुआ है। अन्यान्य देशों की भांति आपको भूकम्प का अधिक भय नहीं है, तथापि इस बात को तो समझना ही चाहिए कि आपको आश्रय देने वाली पृथ्वी क्या है? इस विषय में जैन सिद्धांत ने खूब व्याख्या की है। जैन सिद्धांत में पृथ्वीकाय के जीवों का भी खूब वर्णन किया गया है। उनका शरीर, अवगाहना, संहनन, संस्थान आदि सभी कुछ बतलाया गया है। पृथ्वीकाय के जीव की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग बराबर है। ऐसी अवगाहन वाले छोटे-छोटे अनेक जीव मिले हुए हैं, इसी कारण हिमालय और सुमेरु जैसे बड़े-बड़े पर्वत हैं। सामान्यदृष्टि से मेरु का विचार करते हैं तो मेरु एक ही कहा जाता है, परन्तु उसमें रहे हुए पृथ्वीकाय के जीव असंख्य हैं और वे सभी मेरू हैं। एक घर में रहने वाले बच्चे, बूढ़े, कुत्ते, बिल्ली, चूहे आदि सभी उस घर को अपना-अपना बतलाते हैं। इसी प्रकार अनेक जीव मिलकर उनके शरीर रूप में यह पृथ्वी बनी है। मगर आप स्थूल को पकड़ कर सूक्ष्म को भूल रहे हैं। यही आपकी भूल है। तात्पर्य यह कि आप अभिमान करते हैं, मगर यह नहीं देखते कि अभिमान करने योग्य कौन-सी बात आप में है। अगर यह पृथ्वी के जीव बिखर जावें तो कैसी बीते, कैसा हालात हो जाए? समष्टि से ही यह संसार है। अगर सब जीव बिखर जाएं तो उथल पुथल हो जाए। आपको यह देखना चाहिए कि आप जो काम करते हैं, वह मिलने के हैं या बिखरने के हैं? कृषक खेती करते हैं, तब अन्न निष्पन्न होता है। वे पृथ्वी की सहायता से ही अन्न उत्पन्न करके उसका संग्रह करते हैं। ऐसा न करें तो संसार में हाहाकर मच जाय। संग्रह ही आधार हैं। इसलिए आप ऐसा कोई काम न करें, जिससे आप में फूट पैदा हो। प्राण और शरीर का वियोग मत करो। इनका वियोग न करना ही दया है। मगर कठिनाई तो यह है कि आप जीवों को भंग-खंडित करने मे लग रहे हैं। आप सोचते होंगे कि संसार में रहते हुए ऐसा किस प्रकार किया जा सकता है? लेकिन अगर आप जोड़ने का काम नहीं कर सकते और तोड़ने–फोड़ने भगवती सूत्र व्याख्यान १६६ 3888888888888888888888888888888888888888
SR No.023135
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size19 MB
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