SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अब रोह पूछते हैं-भगवन्! पहले नरक के जीव हैं, या मनुष्य जीव हैं; या तिर्यंच हैं अथवा देव हैं? इस विषय में विभिन्न दर्शनकार अनेक कल्पनाएं करते हैं, मगर अंत में सभी को अनादि पर ही आना पड़ता है। कई कहते हैं- अंडे का एक भाग ऊपर गया तो ऊंचा लोक हो गया और एक भाग नीचे गया तो उससे नीचा लोक हो गया। लेकिन उनसे जब यह पूछा जाता है कि अंडा कहां से आया? तब वे गड़बड़ में पड़ जाते हैं । अतएव किसी भी गति के जीवों को पहले या पीछे नहीं कह सकते। सभी जीव अनादि हैं। अगर नरक की आदि खोजने चलेंगे तो समय की भी आदि खोजनी पड़ेगीं, फिर कर्म की भी आदि ढूंढनी होगी कि पहले देव के कर्म हैं, मनुष्य के कर्म हैं, या नारकी आदि के कर्म हैं? लेकिन कर्म - सामान्य अनादि हैं, इसी प्रकार यह कर्म विशेष भी अनादि है । कर्म बिना लेश्या के नहीं होते। योग और कषाय का एकीभाव लेश्या कहलाता है । कषाय के साथ जब तक मन, वचन और काय के योग नहीं मिलते, तब तक वह कषाय है, जब योग और कषाय मिल जाते हैं, तब कषाय ही लेश्या का रूप धारण कर लेता है। जैसे-जैसे लेश्या की शुद्धि होती जाती है, कर्म की भी न्यूनता होती जाती है । रोह अनगार फिर पूछते हैं- भगवन् ! पहले दृष्टि है या पहले लेश्या है ? भगवान् ने फरमाया - हे रोह ! यह दोनों भी अनादि हैं, अतएव इनमें पहले पीछे का क्रम नहीं है। इससे आगे दर्शन और ज्ञान संबंधी प्रश्न है । वस्तु के सामान्य धर्म को जानना दर्शन है और विशेष धर्मों का बोध होना ज्ञान कहलाता है। रोह ने पूछा- भगवन् ! पहले दर्शन है या ज्ञान है ? भगवान् ने उत्तर दिया- रोह ! दोनों भाव अनादि हैं। इसी प्रकार लोकान्त के साथ भी इनके प्रश्नोत्तर समझने चाहिएं। तदनन्तर संज्ञा का प्रश्न है। संज्ञा, ज्ञान को भी कहते हैं, मगर यहां मोहजन्य तृष्णा का अर्थ अपेक्षित है। जैसे- धन चाहना धनसंज्ञा है, स्त्री की चाह होना स्त्रीसंज्ञा है, आहार की तृष्णा होना आहारसंज्ञा है । रोह पूछते हैं- भगवन्! पहले शरीर है या संज्ञा है? भगवान् फरमाते हैं- दोनों ही अनादि हैं। इसी प्रकार योग और उपयोग का प्रश्न है। योग पहले है या उपयोग पहले है, इस प्रश्न के उत्तर में भगवान ने दोनों को अनादि बतलाया है और क्रम का निषेध किया है। भगवती सूत्र व्याख्यान १५५
SR No.023135
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy