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________________ देखे उसे लोक-संज्ञा दी और जहां केवल आकाश देखा उस भाग को अलोक संज्ञा दी गई। यही लोक और अलोक की मर्यादा है। गौतम स्वामी का प्रश्न यह है कि क्या लोक और अलोक की सीमा मिली हुई है? और अलोक की सीमा लोक से मिली है? या दोनों में कुछ अन्तर है? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फर्माया है- हे गौतम! दोनों का अन्त एक-दूसरे का स्पर्श करता है। अगर ऐसा न माना जायेगा तो दोनों के बीच में जो पोल रह जायेगी, उसे लोक और अलोक के अतिरिक्त तीसरी संज्ञा देनी पड़ेगी ।मगर ऐसा हो नहीं सकता। क्योंकि या तो उस पोल में धर्मास्तिकाय का सद्भाव होगा या असद्भाव होगा। अगर सद्भाव माना जाय तो उसे लोक कहना होगा। अगर अभाव माना जाय तो अलोक कहना पड़ेगा। फिर दोनों ही अवस्थाओं में लोक और अलोक की सीमा मिल जायेगी। अगर यह कहा जाय कि लोक और अलोक के बीच की पोल में धर्मास्तिकाय आदि का न सद्भाव है, न असद्-भाव है; तो यह कथन परस्पर विरोधी है। सद्भाव न होना ही असद्भाव है और असद्भाव न होना ही सद्भाव है। परस्पर विरोधी दो विकल्पों को छोड़कर तीसरा विकल्प होना असंभव है। इसके पश्चात् गौतम स्वामी पूछते हैं- भगवन्! लोक का अन्त, अलोक के अन्त से और अलोक का अन्त लोक के अन्त से, छहों दिशाओं से स्पृष्ट है या किसी एक ही दिशा से? भगवान् फर्माते हैं छहों दिशाओं से स्पृष्ट है। यहां एक प्रश्न पर विचार करना आवश्यक है। वह यह है कि धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गल की गति में सहायक होता है, परन्तु वह स्वयं गति करता है या नहीं? इसका उत्तर यह है कि वह स्वयं नहीं चलता। जैसे तालाब में भरा हुआ जल स्थिर है- पवन लगने से हिलोरें उठना दूसरी बात है, अन्यथा वह गति नहीं करता, इसी प्रकार धर्मास्तिकाय, समस्त लोक में भरा है और वह गति नहीं करता। अब यह भी देखना है कि लोक और अलोक की व्याख्या करने से क्या लाभ है? वैज्ञानिकों ने 'ईथर' नामक गति सहायक पदार्थ का पता लगाया। इसमें उन्हें क्या लाभ है? इसका उत्तर वैज्ञानिक ही ठीक-ठीक दे सकते हैं। इसी प्रकार लोक और अलोक को जानकर उसका निरूपण करने में ज्ञानियों ने क्या लाभ देखा है, यह बात ज्ञानी ही भली-भांति बता सकते 88888888 - भगवती सूत्र व्याख्यान १०१
SR No.023135
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size19 MB
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