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________________ संगत प्रामाणिक ही होता है, अतएव भगवान् को 'समण' कहने में कोई बाधा नहीं है। अथवा-धातुओं के अनेक अर्थ होते हैं, इस नियम के अनुसार 'समणति-इति समण' ऐसी व्युत्पत्ति करनी चाहिए। इसका अर्थ है-प्राणी मात्र के साथ समतामय समान व्यवहार करने वाले। यद्यपि भगवान् देवराज इन्द्र द्वारा भी पूज्य हैं, फिर भी वे सब प्राणियों को सम देखते हैं। समस्त प्राणियों में भगवान् सम हैं, अतः उन्हें 'समण' कहते हैं। भगवान् समस्त प्राणियों को समभाव से देखते हैं, इसका प्रमाण क्या है? इस शंका का समाधान यह है कि यदि भगवान् समभावी न होते तो गौतम से कहते -हे गौतम! मैं पूर्णरूप से निर्विकार एवं संसार से अतीत था; मगर संसार का उद्धार करने के लिए मैं संसार में अवतीर्ण हुआ हूं। इस प्रकार कह कर भगवान् संसारी प्राणियों से अपनी विशिष्टता एवं महत्ता प्रकट करते। किन्तु भगवान् समभावी थे, इस कारण उन्होंने ऐसा नहीं कहा। इसके विरुद्ध उन्होंने कहा है:-हे गौतम! एक दिन मैं भी पृथ्वीकाय में था। मैं पृथ्वीकाय से निकल आया, परन्तु मेरे बहुत-से साथी अब भी वहीं पड़े हैं। इस प्रकार अपनी पूर्वकालीन हीन दशा प्रकट करके अन्य प्राणियों के साथ अपनी समता प्रकट की है। उन्होंने यह भी घोषणा की है कि विकारों पर विजय प्राप्त करते-करते मैं इस स्थिति पर पहुंचा हूं और तुम भी प्रयत्न करके इसी स्थिति को प्राप्त कर सकते हो। जो भगवान् इन्द्रों द्वारा पूजित हैं, इन्द्र जिनका जन्म-कल्याणक मनाते हैं, जो त्रिलोक पूज्य और परमात्म पदवी को प्राप्त कर चुके हैं, वही जब अपना पृथ्वीकाय में रहना प्रकट करते हैं, तब उनके साम्यभाव में क्या कमी है? परमात्मा ने पृथ्वीकाय के जीव रूप में अपनी पूर्वकालीन स्थिति बता कर उन जीवों के साथ अपनी मौलिक एकता द्योतित की है। ऐसी स्थिति में हमें विचारना चाहिए कि हम उन क्षुद्र समझे जाने वाले जीवों से किस प्रकार घृणा करें? भले ही हम इस समय साधक या उपासक दशा में हों फिर भी हमारा ध्येय तो वही पूर्ण समभाव होना चाहिए, जो साक्षात् परमात्मा भगवान् महावीर में था। भगवान् ने न केवल पशुओं-पक्षियों के प्रति ही वरन् कीट-पतंगों के प्रति भी और उनसे भी निकृष्ट एकेन्द्रिय जीवों के प्रति भी साम्यभाव व्यक्त किया है। मगर मनुष्य, मनुष्य के प्रति भी समभाव न रक्खे तो वह कितना गिरा हुआ है? भगवान् के मार्ग से कितना दूर है? ७२ श्री जवाहर किरणावली
SR No.023134
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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