SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ में उत्तम गंधहस्ती के समान, लोकोत्तम (लोकहितकर), लोकप्रदीप लोक में दीपक समान, लोकप्रद्योतकर - लोक में उद्योत करने वाले, अभयदय - अभय देने वाले, चक्षुर्दय - नेत्र देने वाले, मार्गदय -मार्ग देने वाले, शरण देने वाले, (बोधि - सम्यक्त्व देने वाले), धर्मदाता, धर्म की देशना देने वाले, (धर्म नायक), धर्म रूपी रथ के सारथी, धर्म के विषय में उत्तम चातुरंत चक्रवर्ती के समान, अप्रतिहत ज्ञान और दर्शन के धारक, छद्म ( कपट से रहित, जिन राग द्वेष को जीतने वाले, सब तत्वों के ज्ञाता, बुद्ध, बोधक - तत्वों का ज्ञान देने वाले, बाह्य - आभ्यन्तर परिग्रह से मुक्त, मोचक-मुक्ति देने वाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी - (भगवान महावीर) शिव, अबल, रोगरहित, अनन्त, अक्षय, व्याबाध रहित पुनरागमनरहित, 'सिद्धगति' नामक स्थान को प्राप्त करने की इच्छा वाले पधारे। परिषद निकला। भगवान् ने धर्मोपदेश दिया। परिषद् लौट गई। विवेचन-काल और समय की व्याख्या पहले के समान यहां भी समझ लेनी चाहिए। तात्पर्य यह है कि जब अवसर्पिणी काल का चौथा आरा था और जब राजगृह नगर, गुणशीलक चैत्य, श्रेणिक राजा और चेलना रानी थी, उस समय भगवान् महावीर उस चैत्य में पधारे। भगवान् महावीर कौन और कैसे हैं ? यह बतलाने के लिए शास्त्रकार ने भगवान् के लिए कतिपय गुणों का परिचय दिया है। उनके नाम के पहले उन्हें 'श्रमण' और 'भगवान्' यह विशेषण दिये गये है । 'श्रमण' शब्द का क्या अर्थ है? यह देखना आवश्यक है। 'श्रम' धातु से 'श्रमण' शब्द बना है। 'श्रम' धातु का अर्थ है तप करना और परिश्रम करना । श्राम्यति तपस्यति इति श्रमणः' अर्थात् जो तप तपते हैं, तप करने में जो परिश्रम करते हैं, वह 'श्रमण' कहलाते हैं। इस प्रकार श्रमण का अर्थ 'तपस्वी' होता है । प्रश्न किया जा सकता है कि भगवान् जब गुणशीलक चैत्य में पधारे तब कौन - सा तप करते थे ? केवल ज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् उनके तप करने का न कहीं उल्लेख मिलता है और न उस समय तप करने की आवश्यकता ही थी। फिर उन्हें श्रमण क्यों कहा गया है? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जहां चरित्र है वहां तप भी है। इस संबंध से भगवान् महावीर को उस समय भी तपस्वी या श्रमण कहने में कोई बाधा नहीं है। इसके अतिरिक्त भगवान् महावीर ने केवलज्ञान की प्राप्ति से पहले बारह वर्ष के लम्बे समय तक घोर तपश्चर्या की थी। भगवान् की तपश्चर्या श्री जवाहर किरणावली ७०
SR No.023134
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy