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________________ बीच में कोई दूसरे त्रस जीव नहीं हैं किन्तु भवनपति देवों में यह बात नहीं है, इनकी बीच में व्याघात होने से इनके दंडक पृथक-पृथक माने हैं अर्थात् प्रथम नरक के 13 प्रतर और 12 अन्तर हैं। अन्तर में एक-एक जाति के भवनपति रहते हैं और प्रतर में नेरिये रहते हैं परन्तु प्रथम नरक के नीचे के प्रतर से सातवीं नरक तक बीच में कोई भी नहीं होने से नेरयिकों का एक और दश जाति के भवनपतियों के दंडक (विभाग) किये गये हैं ऐसी पूर्वाचार्यो की धारणा है। पृथ्वीकाय के जीवों का एक दंडक है। पृथ्वीकाय के जीवों को यह मालूम नहीं है कि मैं पृथ्वी हूं। लेकिन भगवन् कहते हैं कि जो खेल असुरकुमारों में हो रहा है, वही पृथ्वीकाय के जीवों में भी हो रहा है। जैन शास्त्रों में जैसा अनन्त विज्ञान भरा है, वैसा ज्ञान अन्यत्र देखने में नहीं आता। भगवान् ने नरक के जीवों, असुरकुमार और पृथ्वीकाय के विषय में 72 बातें कही हैं। इन जीवों के जितनी-जितनी इंन्द्रिया हैं, उनका वर्णन भी किया गया है। भगवान् की करुणा सभी जीवों पर समान है। पृथ्वीकाय की ही तरह जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय का भी एक एक दंडक माना गया है। फिर द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय का एक एक दंडक किया और एक दंडक मनुष्य का किया है। चाहे मनुष्य किसी भी क्षेत्र का और किसी भी जाति का हो, सबका दंडक एक ही है। मनुष्य के दंडक के बाद वान-व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक का दंडक गिना गया है। देव और असुर दो योनियां हैं। देव में ज्योतिष्क और वैमानिक गिने जाते हैं और असुर योनि में असुरकुमार आदि गिने जाते हैं। देवों में इतने झगड़े नहीं होते, जितने असुरों में होते है। भगवान् ने असुरकुमार आदि दस के दस दंडक गिनाये और देवों का एक ही दंडक गिना यह त्रिलोकीनाथ का राज्य है। पृथ्वीकायिक जीवों के आहार के विषय में कहा गया है कि अगर व्याघात न हो उनका आहार छहों दिशाओं से होता है। यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि व्याघात किसे कहते हैं? लोक के अन्त में,जहां लोक और अलोक की सीमा मिलती है,वहीं व्याघात होना संभव है। जहां व्याघात नहीं है वहां छहों दिशा का आहार लेते - श्री भगवती सूत्र व्याख्यान २६५
SR No.023134
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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