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________________ यहां यह शंका हो सकती है कि पहले यह कहा जा चुका है कि नारकी अनन्तर अवगाढ पुदगलों का आहार नहीं करते। मगर यहां आदि समय में आहार करना कहा है यह अनन्तर अवगाढ हो जाता है। ऐसी स्थिति में पूर्वापर-विरोध दोष आता है। इस शंका का सामाधान यह है कि दोनों कथनों में विरोध नहीं है। पूर्व कथन ऋजु सूत्रनय की अपेक्षा से है और यह कथन व्यवहारनय से किया गया है अनाभोगनिर्वर्तित आहार का तो यहां प्रकरण ही नहीं है,आभोगनिर्वर्तित आहार का प्रकरण है। आभोगनिर्वर्तित आहार के अन्तर्मुहूर्त में तीन भाग करने चाहिएं। यह तीन भाग आदि, मध्य और अन्त के होंगे। आहार के भाग न करके काल के भाग करने चाहिएं। और काल के साथ आने वाले आहार का आदि, मध्य और अवसान को समझो। इस प्रकार समझने से तनिक भी विरोध न होगा। ऋजुसूत्रनय यही कहेगा कि आदि का आहार करना है क्योंकि उसके हिसाब से जो काम में आ रहा है, वह आदि ही है। किन्तु व्यवहारनय के मत से तीनों ही समयों में आहार कहलाएगा। जैन शास्त्र किसी भी एक नय को स्वीकार न करके सभी नयों को स्वीकार करता है । यहां तक तैतीस द्वारों का वर्णन हुआ। गौतम स्वामी-भगवन्! जो आदि मध्य और अन्त समय में आहार करता है, वह स्वविषय में आहार करता है, अस्वविषय में आहार करता है? हे गौतम! स्व विषय में आहार करता है, अस्वविषय में नहीं करता स्वविषय क्या है? और अस्वविषय किसे कहते हैं? इसका उत्तर यह है कि अपना स्पृष्ट, अवगाढ़ और अनन्तरावगाढ़ रूप विषय, स्वविषय कहलाता है अर्थात् ऐसे पुद्गलों का आहार करना स्वविषय कहलाता है। और इससे विपरीत अस्वविषय कहलाता है। गौतम स्वामी-भगवन्! स्वविषय में जिन पुद्गलों का आहार नारकी करते हैं। वह आनुपूर्वी से या बिना ही आनुपूर्वी से? अर्थात् क्रम से या अक्रम से? पांच उँगलियों में से क्रमपूर्वक एक के पश्चात् दूसरी का ग्रहण करना आनुपूर्वी से ग्रहण करना कहलाता है और बीच की किसी उंगली को छोड़कर आगे वाली को ग्रहण करना बिना आनुपूर्वी के ग्रहण करना कहलाता भगवान् हे गौतम! आनुपूर्वी क्रम से पुद्गलों को ग्रहण करते हैं, आनुपूर्वी से नहीं। २४४ श्री जवाहर किरणावली -
SR No.023134
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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