SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्वप्रथम पृथ्वी का उपकार हैं जो पृथ्वी का उपकार नहीं मानता वह कृतघ्न है। सुना जाता है कि अमेरिका के थौर नामक डाक्टर के शरीर पर साँप रेंगते रहते हैं, लेकिन उसे नहीं काटते। मधु-मक्खियाँ उसके शरीर पर बैठती रहती हैं। लेकिन उसे नहीं काटतीं। उसने भारतीय साहित्य का अध्ययन करके योग द्वारा साधना की है। एक बार वह अपने शिष्य के साथ जंगल में गया। शिष्य ने डाक्टर से पूछा-सब भूमियों में कौन सी भूमि उत्तम है? डाक्टर थौर ने हँसकर उत्तर दिया-"जिस भूमि पर तू दो पैर रखकर खड़ा है, उसे स्वर्ग की भूमि से भी अच्छी न माने तो तुझे उस पर पैर रखने का क्या अधिकार है?' शिष्य ने कहा-क्या यह भूमि स्वर्ग की भूमि से भी अधिक महिमा वाली है? सुनते हैं स्वर्ग की भूमि रत्नमयी है, फिर इस भूमि को स्वर्ग भूमि से बड़ी क्यों मानना चाहिए? डाक्टर ने उत्तर दिया-स्वर्ग की भूमि चाहे जैसी हो तेरे किस काम की? वहाँ के कल्पवृक्ष तेरे किस काम के? स्वर्ग की भूमि को बड़ा मानना तेरा जिस भूमि ने भार वहन किया और कर रही है उसका अपमान करना है। इस भूमि का अपमान करना घोर कृतघ्नता है। अपनी मातृभूमि का अपमान करने वाले के समान कोई नीच नहीं है। सच्चे हृदय से सेवा करने वाली घर की स्त्री का अनादर करके वेश्या की प्रशंसा करने वाला जैसे नीच गिना जाता है, वैसे ही वह व्यक्ति भी नीच है जो भारत में रहकर अमेरिका फ्रांस आदि की प्रशंसा करता है और भारतवर्ष की निन्दा करता है। अमेरिका और फ्रांस की प्रशंसा के गीत गाने वाले बिना पास पोर्ट लिए वहाँ जाकर देखें और वहाँ की नागरिकता के अधिकार प्राप्त करें तो सही! जिस देश में पैदा हुए हैं, उसकी निन्दा करके, दूसरे देश की प्रशंसा करने वाले गिरे हुए हैं, भोग का कीड़ा है उससे किसी प्रकार का उद्देश्य सिद्ध नहीं हो सकता। तात्पर्य यह है कि भोगों की लालसा से प्रेरित होकर आत्मिक कार्यों को छोड़ देना, यही गुलामी है, यही बंधन हैं और इसीसे विविध प्रकार के दुःखों का उद्गम होता है। भोगमय कपड़े छोडकर त्याग को अपनाने वाले के लिए मुक्ति भी समीप है। भोगमय वस्त्रों का त्याग आनन्द श्रावक ने भी तो किया था। उसने कपास के बने एक युगलपट क्षोमवस्त्र का आगार रखकर शेष समस्त वस्त्रों का त्याग कर दिया था। क्या इस त्याग को मोक्ष का मार्ग न मानोगे? इस प्रकार पापमय वस्त्रों का त्याग कर हम अपने आत्मा का भी कल्याण क्यों - श्री भगवती सूत्र व्याख्यान २११
SR No.023134
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy