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________________ ठीक यही बात मृत्यु के संबंध में है। जीव ने जितने आयुकर्म के दलिक बाँधे हैं, उनमें से थोडे-थोडे प्रतिक्षण उदय में आकर क्षीण हो जाते हैं और आयुकर्म के दलिको का क्षीण होना ही मृत्यु कहलाता है। अगर यह कहा गया जिस समय समस्त आयुकर्म के दलिक क्षीण हो जाते हैं उसी समय मृत्यु होती है, तो यह कथन ठीक नहीं क्योंकि समस्त आयुकर्म के दलिक किसी भी समय क्षीण नहीं होते। अंतिम समय में वे ही आयु के दलिक क्षीण होते हैं जो पहले क्षीण होने से बच रहते हैं-समस्त नहीं। मतलब यह है कि अंतिम समय में भी जब समस्त दलिक क्षीण नहीं होते शेष रहे हुए कुछ दलिक ही क्षीण होते हैं और पहले भी कुछ दलिक क्षीण हुए हैं तो क्या कारण है कि अंतिम समय में मृत्यु होना माना जाय और पहले (जीवित अवस्था में ) न माना जाय? आयु कर्म का क्षीण होना ही मृत्यु है। अतएव प्रतिक्षण मृत्यु मानना ही युक्ति संगत है। अगर प्रति क्षण मरना न माना जायगा तो जीव कभी नहीं मरेगा। गौतम स्वामी का नवमाँ प्रश्न है: निज्जरिज्जमाणे निज्जिण्णे? अर्थात- जो निर्जरता है वह निर्जीर्ण हुआ, ऐसा माना जाय? साधारणतया फल देने के पश्चात् कर्मों का आत्मा से अलग होना निर्जरा है किन्तु यहाँ निर्जरा का अर्थ मोक्ष प्राप्ति रूप है। कर्म फिर कभी कर्म रूप से उत्पन्न न हो उसे निर्जरमान कहते हैं। मोक्ष प्राप्त करने वाले जो महापुरुष कर्म की निर्जरा करते हैं उनके निर्जीर्ण कर्म फिर कभी कर्म रूप से उन्हें उत्पन्न नहीं होते। उन्हें फिर कभी कर्मों को भोगना नहीं पड़ता। इस प्रकार कर्मों का आत्यन्तिक क्षीण होना यहाँ निर्जरा कही गयी है। निर्जरा भी असंख्यात समयों में होती है। मगर जब कर्म निर्जीर्ण होने लगा, तभी पहले समय में ही निर्जीर्ण हुआ, ऐसा कहना चाहिए। यहाँ पर भी पहले के समान ही शंका की जा सकती है, और उसका उत्तर भी पहले के ही समान दिया जा सकता है। पहले वस्त्र का दृष्टान्त देकर यह स्पष्ट कर दिया गया है कि असंख्यात समय में होने वाली क्रिया को प्रथम समय में भी हुई ऐसा कहा जा सकता है। २०४ श्री जवाहर किरणावली -
SR No.023134
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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