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________________ समुद्र की भांति यह संसार भी खारा है। संसार के खारेपन में से जो मिठास उत्पन्न करता है वही सच्चा भक्त है। लेकिन आज के लोग खारे समुद्र से मिठास न निकाल कर खारापन ही निकालते हैं, जिससे आप भी मरते हैं और दूसरों को भी मारते हैं। मगर सच्चे भक्त की स्थिति ऐसी नहीं होती । भक्त संसार में रहता हुआ भी उसके खारेपन में नहीं रहता । वह समुद्र में मछली की भांति मिठास में ही रहता है। कोई स्थलचर प्राणी दो-चार घंटे भी समुद्र में रहेगा तो मरने लगेगा। मगर मछली समुद्र की तह तक चली जाती है फिर भी नहीं मरती । वह अपने भीतर हवा का खजाना भर लेती है, जिससे आवश्यकता के समय उसे हवा मिलती रहती है । अतएव उसका श्वास नहीं घुटता और वह जीवित रहती है। यह संसार खारा और अथाह है। इसमें दम घुट कर मरना संभव है। लेकिन भक्त लोग अपने भीतर भगवद्भक्ति रूपी ताजी हवा भर लेते हैं, जिससे वे इस संसार में फंस कर मरते नहीं हैं। यद्यपि प्रकट रूप में भक्त और साधारण मनुष्य में कुछ अन्तर नहीं दिखाई देता, लेकिन वास्तव में उनमें महान् अन्तर होता है। भक्त की आत्मा संसार के खारेपन से सदा बची रहती है। मछली जब जल में गोता लगाती है, तब लोग समझते हैं कि मछली डूब मरी। अगर मछली कहती है- डूबने वाला कोई और होगा। मैं डूबी नहीं हूं। यह तो मेरी क्रीड़ा है। समुद्र मेरा क्रीड़ा स्थल है। इसी प्रकार भक्त जन संसार में भले ही दीखते हों, साधारण पुरुषों की भांति व्यवहार भले ही करते हों मगर उनकी भावना में ऐसी विशिष्टता होती है कि संसार में रहते हुए भी वे संसार के प्रभाव से बचे रहते हैं । वे संसार समुद्र के खारेपन से विलग रह कर मिठास ही ग्रहण करते हैं । अगर आप सागर में मछली की भांति रहेंगे तो आनंद की प्राप्ति कर सकेंगे। अगर आप आसक्ति के खारेपन से न बच सकेंगे तो दुःख के पहाड़ आपके सिर पर आ पड़ेंगे। पामर प्राणी चेते तो चेताऊं तोनेरे ! खोलामां थी धन खोयो, धूल थी कपाल धोयो, जाणपणूं तारो जोयारे ।। पामर ।। हजी हाथमां छे बाजी, करी ले प्रभु ने राजी । तारी मूड़ी थशे ताजी रे ।। पामर. ।। हाथमां थी बाजी जासी, पाछे पछतावो थासी । पछे कछू न करी सकारी रे।। पामर. ।। १३० श्री जवाहर किरणावली
SR No.023134
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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