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________________ है-रोग-द्वेष के विपाक को जानता है और फिर उसे हेय समझकर राग- -द्वेष का नाश करता है, वही राग-द्वेष का विजेता है । उदाहरणार्थ- दुमुंही सांप की एक जाति, (जिसके दोनों ओर मुख होते हैं) को छेड़ने पर क्रुद्ध नहीं होती और सर्प छेड़ने से क्रोधित हो जाता है। दुमुही का क्रुद्ध न होना, क्रोध को जीत लेने का प्रमाण नहीं है । क्रोध न करना उसके लिए स्वाभाविक है। लेकिन अगर कोई सर्प ज्ञानी होकर क्रोध न करे तो कहा जायेगा कि उसने क्रोध के जीत लिया है, जैसे चण्डकोशिक ने भगवान् के दर्शन के पश्चात् क्रोध पर विजय प्राप्त कर ली थी। जिसमें जिस वृत्ति का उदय ही नहीं है, वह उस वृत्ति का विजेता नहीं कहा जा सकता । अन्यथा समस्त बालक काम - विजेता कहलाएंगे। विजय संघर्ष का परिणाम है। जिसने संघर्ष ही नहीं किया उसे विजेता का महान् पद प्राप्त नहीं होता। संघर्ष और विजय, दोनों के लिए ज्ञान अनिवार्य है। अज्ञानी पुरुष अगर अपने विरोधी को नहीं पहचानता तो वह संघर्ष में कैसे कूद सकता है ? और अगर कूद भी पड़ता है तो विजय के साधनों से अनभिज्ञ होने के कारण विजेता कैसे हो सकता है ? इस प्रकार राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करने के लिए, प्रथम ही उनके स्वरूप का और उनके विपाक का ज्ञान हो जाना आवश्यक है। समझ बूझकर ज्ञानपूर्वक उन्हें जीतना ही सच्चा जीतना है। भगवान् 'जाणए' अर्थात् ज्ञापक हैं। यद्यपि राग आदि को जीतने से पहले भगवान् में केवलज्ञान प्रकट नहीं हुआ था, तथापि उन्हें चार निर्मूल ज्ञान प्राप्त थे। उन ज्ञानों से भगवान् ने राग आदि विकारों के स्वरूप को जाना और उन्हें जीतने के उपायों को भी जाना । तत्पश्चात् विकारों पर विजय प्राप्त की । तात्पर्य यह है कि भगवान् ने रागादि को जानकर ही उन्हें जीता था। इस कारण भगवान् 'जिणे' हैं और 'जाणए' भी हैं अर्थात् राग आदि को जीतने वाले भी हैं और उन्हें सम्यक् प्रकार से जानने वाले भी हैं। शास्त्रकारों ने कहा है कि, अगर तुम क्रोध को जानते हो तो इस बात को भी जानो कि क्रोध के बदले क्रोध करने से क्रोध नहीं मिटता । तुम्हें यह भी जानना चाहिए कि क्षमाभाव धारण करने से ही क्रोध का अन्त आता है। 'उवसमेण हणे कोहं' । अर्थात् क्षमा से क्रोध को विरोधी से संघर्ष करने के पश्चात् विजय पाने वाला विजेता जीतना चाहिये । आप दुकान पर बैठे हों और कोई आदमी आप से कंकर के बदले हीरा लेना चाहे तो आप उसे हीरा दे देंगे? नहीं! श्री भगवती सूत्र व्याख्यान १२१
SR No.023134
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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