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________________ सिद्धं शिवं शिवकरं करणव्यपेतम् श्रीमज्जिनं जितरिपुं प्रयतः प्रणौमि ।। त्वा श्रीवर्द्धमानाय, श्रीमते च सुधर्मणे । सर्वानुयोगवृद्धेभ्यो, वाण्यं सर्वविदस्तथा।। अर्थात् :- मैं श्रीजिनेन्द्र देव को, जो जितरिपु हैं - जिन्होंने राग-द्वेष आदि शत्रुओ को जीत लिया है, विधिपूर्वक नमस्कार करता हूं । भगवान् सर्वज्ञ हैं। कई लोग राग आदि शत्रुओं का नाश होने पर भी सर्वज्ञता स्वीकार नहीं करते। उनके मत का विरोध करने के लिए भगवान् को यहां सर्वज्ञ विशेषण लगाया गया है। इसके अतिरिक्त राग आदि शत्रुओं को जीतने के लिए पहले ज्ञान की आवश्यकता होती है सो भगवान् सर्वज्ञ है। आचार्य ने हेतु हेतुमद्भाव दिखाने के लिए सर्वज्ञ विशेषण दिया है। जो सर्वज्ञ होता है वह जितरिपु अर्थात् वीतराग अवश्य है । जब पूर्ण रूप से आत्मधर्म प्रकट हो जाता है तब सर्वज्ञता आती है। अतएव भगवान् जिनेन्द्र ईश्वर हैं । उनके सब आत्मधर्म प्रकट हो चुके हैं। जिस आत्मा की प्रकृति चिदानन्द गुण मय हो जाती है, जो संसार के किसी भी पदार्थ की परतंत्रता में नहीं रहती वही आत्मा ईश्वर है । आचार्य ने यहां पर भी हेतुहेतुमद्भाव प्रदर्शित किया है। लोग अज्ञानी को भी ईश्वर मानते हैं, जो सांसारिक पदार्थों की परतंत्रता में है उसे भी ईश्वर मानते हैं। मगर परतंत्रता अनीश्वरत्व का लक्षण है । जो पराधीन है वह अनीश्वरत्व का लक्षण है । जो पराधीन है वह अनीश्वर है । उसमें ईश्वरत्व नहीं हो सकता । जो ईश्वर होता है वह अनन्त होता है। जिसे अनन्त अर्थों का ज्ञान है वही ईश्वर है । जिसके ज्ञान का अंत नहीं है, जो अनंत अर्थों का ज्ञाता है, जिसे अनन्त काल का ज्ञान है, जिसका ज्ञान अनन्त काल तक विद्यमान रहता है, उसे अनन्त कहते हैं अथवा जो एक बार ईश्वरत्व प्राप्त करके फिर कभी ईश्वरत्व से च्युत नहीं होता उसे अनन्त कहते हैं। कई लोग ईश्वर का संसार पुनरागमन - अवतार होना मानते हैं। उनकी मान्यता का निराकरण करने के लिए ईश्वर विशेषण के पश्चात् 'अनन्त' विशेषण दिया गया है। ईश्वर अनन्त क्यों हैं? इस प्रश्न का समाधान 'अनन्त' विशेषण के पश्चात् दिये हुए 'असंग' विशेषण द्वारा किया गया है। तात्पर्य यह है कि संसार में उसी आत्मा को जन्म धारण करना पड़ता है जो संग अर्थात् बाह्य उपाधियों से युक्त होता है। जिस आत्मा के साथ राग-द्वेष आदि विकारों का संग-संसर्ग है उसे जन्म-मरण का कष्ट भोगना पड़ता है। ईश्वर सर्वज्ञ है, श्री जवाहर किरणावली २
SR No.023134
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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