SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्न हो सकता है कि लोक किसे कहते हैं? उसका उत्तर यह है कि लोकि विलोकने धातु से 'लोक' शब्द बना है। जो देखा जाये वह लोक है। यों तो सभी का लोक दिखाई देता है, मगर जिसे सब लोग देखते हैं उसी को लोक माना जाये तो लोक के टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे। अतएव साधारण मनुष्य के देखने में जो आता है वही लोक नहीं है अपितु ज्ञानावरण का पूर्ण रूप से क्षय हो जाने पर, सर्वज्ञ भगवान् को जो देखता है वह लोक है। यहां फिर तर्क किया जा सकता है कि सर्वज्ञ भगवान् क्या अलोक को नहीं देखते? अगर अलोक को देखते हैं तो अलोक भी लोक हो जाएगा। अगर अलोक को भगवान नहीं देखते तो वह सर्वज्ञ-सर्वदर्शी कैसे कहलाएंगे? इस का उत्तर यह है कि आकाश के जिस भाग में पंचास्तिकाय दिखाई देता है वह भाग लोक कहलाता है और जिस भाग में पंचास्तिकाय नहीं है, केवल आकाश ही आकाश है वह अलोक कहलाता है। भगवान् सम्पूर्ण संसार के वस्तु स्वरूप को देखते हैं, अतएव वे लोक के सूर्य कहलाते हैं। लोक प्रद्योतकरभगवान् लोक-प्रद्योतकर भी हैं। संसार के समस्त पदार्थों का यथार्थ स्वरूप केवलज्ञान द्वारा जानकर प्रकाशित करने वाले हैं। उन्होंने केवलज्ञान रूपी प्रकाश से जानकर छद्मस्थ जीवों को लोक का स्वरूप प्रदर्शित किया है, अतएव भगवान् सूर्य हैं। भगवान् के केवल ज्ञान रूपी प्रभाकर से प्रवचन रूपी प्रभा का उद्गम हुआ है। उस प्रवचन रूपी प्रभा से यह सिद्ध होता है कि भगवान् में केवल ज्ञान का प्रकाश विद्यमान था। जैसे प्रकाश के होने से सूर्य जाना जाता है, वैसे ही प्रवचन की प्रभा से यह जाना जाता है कि भगवान् में केवलज्ञान रूपी प्रकाश है और इसी कारण गणधरों ने भगवान् को लोक का सूर्य कहा है। यद्यपि सूर्य के प्रकाश से समस्त संसार के समस्त पदार्थ प्रकाशित नहीं हो सकते-सूर्य सिर्फ स्थूल जड़ पदार्थों को ही प्रकाशित कर सकता है, और वह भी सदा के लिए नहीं किन्तु कुछ ही समय के लिए प्रकाशित कर सकता है; और भगवान् चौदह राजू लोक को-समस्त संसार के समस्त स्थूल, सूक्ष्म, रूपी, अरूपी, जड़-चेतन को प्रकाशित करते हैं। ऐसी अवस्था में भगवान् को सूर्य रूपी उपमा देना हीनोपमा ही कहा जा सकता है, मगर उपमा के बिना वस्तु का स्वरूप सर्व साधारण को सुगमता से समझ में नहीं आता और - श्री भगवती सूत्र व्याख्यान १०३
SR No.023134
Book TitleBhagwati Sutra Vyakhyan Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Aacharya
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy