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________________ 28. प्रा. जं पहूणं रोएइ, तं चेव कुणंति सेवगा निच्चं । सं. यत् प्रभुभ्यो रोचते, तदेव कुर्वन्ति सेवकाः नित्यम् । हि. जो स्वामी को पसन्द आता है, सेवक हमेशा वही करते हैं। 29. प्रा. सच्चं सुअं पि सीलं, विन्नाणं तह तवं पि वेरग्गं । वच्चइ खणेण सव्वं, विसयविसेण जइणं पि ।।9।। सं. विषयविषेण यतीनामपि सत्यं श्रुतमपि शीलं । विज्ञानं तथा तपोऽपि वैराग्यं सर्वं क्षणेन व्रजति ।।9।। हि. विषयरूपी जहर से साधुओं के भी सत्य, श्रुत, शील, विज्ञान, तप और वैराग्य ये सभी क्षणमात्र में चले जाते हैं ।।9।। 30. प्रा. जह जह दोसो विरमइ, जह जह विसएहि होइ वेरग्गं । तह तह वि नायवं, आसन्नंचिय परमपयं ||10|| सं. यथा यथा दोषो विरमति, यथा यथा विषयेभ्यो वैराग्यं भवति । तथा तथाऽपि परमपदमासन्नमेव ज्ञातव्यम् ||10|| हि. जैसे जैसे दोष दूर होते हैं, जैसे-जैसे विषयों से वैराग्य होता है, वैसे वैसे निश्चय मोक्ष (परमपद) नजदीक जानना । 31. प्रा. धन्नो सो जिअलोए, गुरवो निवसंति जस्स हिययंमि । धन्नाण वि सो धन्नो, गुरूण हियए वसइ जो उ ।।11।। सं. जीवलोके स धन्यः, यस्य हृदये गुरवो निवसन्ति । स धन्यानामपि धन्यः, यस्तु गुरूणां हृदये वसति ||11 ।। हि. जगत् में उसे धन्य है कि जिसके हृदय में गुरु रहते हैं, वह धन्यों (भाग्यशालियों) में भी भाग्यशाली है कि जो गुरु के हृदय में रहता है। हिन्दी वाक्यों का प्राकृत एवं संस्कृत अनुवाद 1. हि. बालक कण्ठ में हार धारण करते हैं। प्रा. सिसवो कंठे हारे परिहाइरे । सं. शिशवः कण्ठे हारान् परिदधति । 2. हि. इन्द्र देवों को तीर्थंकर के अतिशय कहते हैं । प्रा. वज्जपाणी देवे तित्थयरस्स अइसए कहेइ । सं. वज्रपाणिर्देवान् तीर्थकरस्याऽतिशयान् कथयति । 3. हि. वह मद्य में बहुत आसक्त है। प्रा. सो महुम्मि बहु आसत्तो अत्थि । सं. स मधुनि बह्वासक्तोऽस्ति ।
SR No.023126
Book TitleAao Prakrit Sikhe Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysomchandrasuri, Vijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2013
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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