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________________ प्राकृत 'सासाई 'तंपि जलं, पत्तविसेसेण अंतरं 'गुरुअं । अहिमुहि पडिअंगलं, "सिप्पिउडे 12मुत्तियं होइ ।।258।। 'केसिंचि होइ वित्तं, 'चित्तं 'अन्नेसिमुभयमन्नेसिं । चित्तं वित्तं 1 पत्तं, "तिण्णि विकेसिंचि 13धन्नाणं ।।259।। कत्थ विदलं न गंद्यो, 'कत्थ विगंधो न होइ'मयरंदो । 1"इक्ककुसुमंमि महुयर !, 12दो तिण्णि गुणा 4न 15दीसति ।।260।। संस्कृत अनुवाद । सा स्वातिः, जलमपि तत्, पात्रविशेषेणाऽन्तरं गुरुकम् ।। अहिमुखे पतितं गरलं, शुक्तिपटे मौक्तिकं भवति ||258।। केषाञ्चिद् वित्तं भवति, अन्येषां चित्तम्, अन्येषामुभयम् । चित्तं वित्तं पात्रं, त्रीण्यपि केषाश्चिद् धन्यानाम् ।।259।। कुत्राऽपि दलं, गन्धो न; क्वाऽपि गन्धो, मकरन्दो न भवति । मधुकर ! एककुसुमे द्वौ त्रयो वा गुणा न दृश्यन्ते ।।260।। हिन्दी अनुवाद वही स्वाति नक्षत्र है, वही पानी है, परन्तु पात्र विशेष से बड़ा अंतर हो जाता है, सर्प के मुख में गिरा (पानी) जहर बन जाता है और सीप के अंदर गिरा (पानी) मोती बन जाता है । (258) किसी के पास धन होता है, किसी के पास मन होता है, तो किसी के पास दोनों होते हैं, परन्तु मन, धन और पात्र ये तीनों तो किसी धन्यात्मा को ही प्राप्त होते हैं । (259) किसी वृक्ष पर फूल होता है, गंध नहीं होती है, कहीं गंध होती है परन्तु मकरंद = पुष्परस नहीं होता है, हे भ्रमर ! एक ही फूल पर दो या तीन गुण देखने को नहीं मिलते हैं । (260) प्राकृत कत्थ विजलं 'न'छाया, 'कत्थ वि छायान 'सीअलं सलिलं । . 1'जलछायासंजुत्तं, 12 1"पहिअ ! 13सरोवरं 14विरलं ।।261 ।। 'कत्थ वितवो 'न तत्तं, 'कत्थ वितत्तं न 'सुद्धचारित्तं । 'तवतत्तचरणसहिआ, 1"मुणिणो वि अथिोव "संसारे ।।262।। -२२७
SR No.023126
Book TitleAao Prakrit Sikhe Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysomchandrasuri, Vijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2013
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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