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________________ बालक भी यह तो जानता है कि-जीवहिंसा करने से स्वर्गप्राप्ति नहीं होती है, क्या सर्प के मुखरूपी गुफा में से कभी अमृतरस की वृष्टि होती है ? (197) ... तत्पश्चात् गुरु भगवंत ने कहा, हे राजन् ! तुम्हारी बुद्धि धर्ममय है, विवेक सर्वोत्तम है और तत्त्वदर्शित्व भी अनुपम है । (198) प्राकृत 'जंजीवदयारम्मे, 'धम्मे कल्लाणजणणकयकम्मे । 'सग्गापवग्गपुरमग्ग-दंसणे 'तुह 'मणं लीणं ।।199।। तओ रन्ना रायाएसपेसणेण सव्वगामनगरेसु अमारिघोसणा-पडहवायणपुव्वं पवत्तिया जीवदया। गुरुणा भणिओ राया, महाराय ! दुप्पच्च्या पाएण मंसगिद्धी । धन्नो तुमं भायणं सकलकल्लाणाणं जेण कया मंसनिवित्ती । संपयं मज्जवसणदोसे सुणसु ___ संस्कृत अनुवाद यज्जीवदयारम्ये, कल्याणजननकृतकर्मणि । स्वर्गाऽपवर्गपुरमार्गदर्शने धर्मे तव मनो लीनम् ।।199।। ततो राज्ञा राजादेशप्रेषणेन सर्वग्रामनगरेष्वमारिघोषणापटहवादनपूर्वं प्रवर्तिता जीवदया । गुरुणा भणितो राजा, महाराज ! प्रायेण मांसगृद्धिर्दुष्प्रत्यजा । धन्यस्त्वम्, सकलकल्याणानां भाजनम्, येन मांसनिवृत्तिः कृता । हिन्दी अनुवाद जीवदया द्वारा मनोहर, कल्याणकारी उत्तम कार्य, स्वर्ग और अपवर्गरूपी नगर के मार्ग को बतानेवाले धर्म में तुम्हारा मन लीन बना है । (199) अतः राजा (कुमारपाल) ने राज आदेश = फरमान भेजकर प्रत्येक गाँव और नगर में अमारिघोषणा पटह वादनपूर्वक जीवदया प्रवाई, जीवदया का पालन करवाया । गुरु भ. ने राजा को कहा, हे राजेश्वर ! प्रायः मांस के प्रति आसक्ति मुश्किल से छूटती है। DI - २०९
SR No.023126
Book TitleAao Prakrit Sikhe Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysomchandrasuri, Vijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2013
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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