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________________ भी, जिनकी वसति में रहे हो उस मालिक की अनुमति बिना साधु म. स्वयं लेते नहीं हैं, दूसरों के द्वारा ग्रहण करवाते नहीं हैं और ग्रहण करनेवाले की अनुमोदना भी नहीं करते हैं । (139, 140) ----- लोक में संयमघातक स्थान का त्याग करनेवाले मुनि भयंकर, (दुःखदायी) प्रमाद के स्थानरूप, अनन्तसंसार के कारणरूप, दुष्टाश्रयरूप (दुराचार) अब्रह्म का सेवन नहीं करते हैं । (141) प्राकृत मूलमेयमहम्मस्स, 'महादोससमुस्सयं । 'तम्हा मेहुणसंसग्गं, निग्गंथा 'वज्जयंति 'णं ।।142।। अबिड'मुब्भेइयं लोणं, तिल्लं'सप्पिं च फाणिअं । 1°न 'ते सन्निहिमिच्छंति, नायपुत्तवओरया ।।143।। लोहस्से'स अणुफासे, 'मन्ने 'अन्नयरामवि । 6जे 'सिया सन्निहिं 'कामे, "गिही 13पव्वइए 12 10से ।।144।। ___ जंपि वत्थं च पायं वा, कंबलं पायपुंछणं । तं पि संजमलज्जट्टा, धारंति परिहरंति अ ।।145।। संस्कृत अनुवाद एतदधर्मस्य मूलं , महादोषसमुच्छ्यम् । तस्मान्निर्ग्रन्थास्तं, मैथुनसंसर्गं वर्जयन्ति ।।142।। ते ज्ञातपुत्रवचोरताः, बिडमुद्भेद्यं लवणं । तैलं सर्पिः फाणितं च, सन्निधिं नेच्छन्ति ।।143।। एष लोभस्याऽनुस्पर्शः, मन्येऽन्यतरामपि । यः स्यात् सन्निधिं कामयेत्, स गृही, न प्रव्रजितः ।।144।। यदपि वस्त्रं च पात्रं वा, कम्बलं पादप्रोञ्छनम् । __ तदपि संयमलज्जार्थं , धारयन्ति परिहरन्ति च ||1451 हिन्दी अनुवाद यह अब्रह्मचर्य अधर्म (पाप) का मूल है, महादोषों का स्थान है, अतः साधु भगवंत इस मैथुन के सम्बन्ध का त्याग करते हैं । (142) ज्ञातपुत्र श्रीवीरप्रभु के वचनों में तत्पर साधु प्रासुक = गोमूत्र; अग्नि आदि से शुष्क किया हुआ नमक अथवा अप्रासुक = समुद्र आदि का नमक, तेल, घी, नरम गुड़ इत्यादि (सन्निधि) अपने पास नहीं रखते हैं । (143) -१७०
SR No.023126
Book TitleAao Prakrit Sikhe Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysomchandrasuri, Vijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2013
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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