SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सं. संयोगमूला दुक्खपरंपरा जीवेन प्राप्ता । तस्मात् सर्वं संयोगसंबन्धं, त्रिविधेन व्युत्सृष्टम् ||68|| हि. संयोगमूलक = संयोग के कारण से दुःखों की परम्परा जीव द्वारा प्राप्त की गई है, अतः सभी संयोग के सम्बन्ध का त्रिविध = मन वचन-काया से त्याग किया है। 24. प्रा. अरिहंतो मह देवो, जावज्जीवं सुसाहूणो गुरुणो । जिणपन्नत्तं तत्तं, इअ सम्मत्तं मए गहि ||69।। समास विग्रह :- जीवं जावत्ति जावज्जीवं (अव्ययीभावः) । जिणेहिं पन्नत्तं जिणपन्नत्तं (तृतीयातत्पुरुषः)। सं. अर्हन् मम देवो, यावज्जीवं सुसाधवो गुरवः | जिनप्रज्ञप्तं तत्त्वमिति, सम्यक्त्वं मया गृहीतम् ।।6।। हि. अरिहन्त मेरे देव हैं, जीवनपर्यन्त सुसाधु भगवन्त मेरे गुरु हैं, श्री जिनेश्वर ने जो कहा वह तत्त्व है इस प्रकार का सम्यक्त्व मेरे द्वारा ग्रहण किया गया है। हिन्दी वाक्यों का प्राकृत एवं संस्कृत अनुवाद 1. हि. देवों और असुरों के समुदाय से वन्दित जिनेश्वर भगवन्त हमारा रक्षण करें। प्रा. सुरासुरविंदवंदिया जिणीसरा अम्हे रक्खन्तु । समास विग्रह :- सुरा य असुरा य सुरासुरा । सुरासुराणं विंद सुरासुरविंदं । सुरासुरविंदेण वंदिया सुरासुरविंदवंदिया । (द्वन्द्व-षष्ठीतृतीयातत्पुरुषाः)। जिणाणं ईसरा जिणीसरा (षष्ठीतत्पुरुषः)। सं. सुरासुरवृन्दवन्दिता जिनेश्वरा अस्मान् रक्षन्तु । हि. जो विह्वल (मनुष्य) को शान्ति देता है, दुःख में आये हुए का उद्धार करता है, शरण में आये हुए का रक्षण करता है, उन पुरुषों द्वारा पृथ्वी अलंकृत है। जे विहलिअजणे संतिं देंति, दुहपडिए उद्धरेन्ति, सरणागए य रक्खेइरे, तेहिं पुरिसेहिं इमा पुहुवी अलंकिया अत्थि । समास विग्रह :- विहलिआ य तेजणा विहलिअजणा, ते विहलिअजणे (कर्मधारयः)। -१३३
SR No.023126
Book TitleAao Prakrit Sikhe Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysomchandrasuri, Vijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2013
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy