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________________ 32. जइ वि दिवसेण पयं, धरेह पक्खेण वा सिलोगद्वं । उज्जोगं मा मुंचह, जइ इच्छह सिक्खिउं नाणं ||4|| 33. कुणउ तवं पालउ, संजमं पढउ सयलसत्थाइं । जाव न झायइ जीवो, ताव न मुक्खो जिणो भाइ ||5|| प्राकृत मे अनुवाद करें 1. प्रभात में स्तोत्रों द्वारा प्रभु की स्तुति करनी चाहिए और बाद में अध्ययन करना चाहिए | व्यापार की तरह मनुष्य को हमेशा धर्म में भी उद्यम करना चाहिए । विद्याधर विमानों द्वारा गमन करें । 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. करणीय कार्य में प्रमाद नहीं करना चाहिए । 11. साधुओं को दिन में ही विहार करना चाहिए । 12. तू व्यर्थ कोप न कर, हित को सुन । 13. तुम पंडित हो इसलिए तत्त्वों का विचार करो । 14. लोभ को संतोष द्वारा छोड़ । 15. सभी तीर्थों में शत्रुंजय तीर्थ उत्तम है इसलिए तू वहाँ जा, कल्याण कर और पापों का क्षय कर । इन्द्र ने कुबेर को हुकम किया कि ज्ञातपुत्र के घर द्रव्य की वृष्टि करो | तुम धर्म से जीओ और सत्य से सुखी बनो । गुरु के आदेश का उल्लंघन नहीं करना चाहिए । हे बालक ! तू व्यर्थ ही राख में घी मत डाल | तुम्हें उपाध्याय के पास व्याकरण सीखना चाहिए । जवानी में धर्म करना चाहिए । 16. संतोष में जैसा सुख है वैसा सुख अन्य में नहीं है इसलिए संतोष धारण करना चाहिए | 17. जीव वृद्धावस्था में धर्म करने के लिए समर्थ नहीं होता है । 18. अच्छी तरह से पका हुआ अनाज खाना चाहिए । 19. प्रतिदिन जिनेश्वर का दर्शन और गुरु का उपदेश सुनना चाहिए । 20. जो संसार से तारनेवाला है उस ईश्वर की निन्दा मत कर । ९०
SR No.023125
Book TitleAao Prakrit Sikhe Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykastursuri, Vijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2013
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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