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________________ आओ संस्कृत सीखें 179 कथा किसी स्थान में एक कुंभकार रहता था, वह एक बार प्रमाद से आधे टूटे हुए घड़ों के टुकड़ों पर खूब वेग से भागने से गिर पड़ा । उन ठीकरों से उसका ललाट फट गया । खून से लथपथ शरीरवाला बड़ी मुश्किल से खड़ा होकर अपने घर गया । उसके बाद अपथ्य के सेवन से उसका वह घाव भयंकर हो गया । फिर कठिनाई से नीरोगी हुआ । I अब एक बार दुष्काल से पीड़ित देश में वह कुंभकार कुछ राजसेवकों के साथ दूसरे देश में गया और किसी राजा का सेवक बना । उस राजा ने भी उसके मस्तक में बड़े प्रहार का घाव देखकर सोचा कि यह कोई वीर पुरुष है, निश्चय ही इसके ललाट में प्रहार का चिह्न है, इसलिए सभी राजपुत्रों के बीच उसको सन्मान आदि द्वारा प्रसन्नता से देखता है । वे राजपुत्र भी उसकी उस प्रसन्नता को देख ईर्ष्या रखते हुए राजा के भय से कुछ बोलते नहीं हैं । अब एक बार युद्ध का प्रसंग आने पर उस राजा ने उस कुंभकार को एकान्त में पूछा, ‘हे राजपुत्र । तुम्हारा नाम क्या ? और तेरी जाति कौनसी ? कौनसे युद्ध में ये प्रहार लगा है ? वह बोला, ‘देव ! यह शस्त्र का प्रहार नहीं, युधिष्ठिर नाम का मैं कुंभकार हूँ । मेरे घर में बहुत घड़ो के टुकडे पड़े थे । एक बार मैं दारु पीकर निकला, और भागते हुए मिट्टी के टुकड़ों पर गिर पड़ा, उन टुकड़ों के प्रहार से मेरा ललाट ऐसी विकरालता को प्राप्त हुआ । राजा ने सोचा, 'अहो ! मैं कुंभकार द्वारा ठगा गया । उसने कुंभकार को कहा, 'हे कुंभकार ! तू यहाँ से जल्दी चला जा ।'
SR No.023123
Book TitleAao Sanskrit Sikhe Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivlal Nemchand Shah, Vijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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