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________________ ( २० ) मूल तथा भाषांतर. वनस्पrिकाने विषे ज फरी फरीने उत्पन्न थाय तो उत्कर्षथी अनंताभव करे छे. २०. पण पुढवाइस बिगला, विगलेसु भुवाइ विगल संखभवे । गुरुआउतिभंगे पुण, भवठ्ठ सव्वत्थ दुजहन्ना ॥ २१ ॥ मूलार्थ - विकलेंद्रियो पृथिव्यादिक पांचमांना दरेकने विषे संख्याता भव करे छे, तथा पृथिव्यादिक पांचे अने विकलेंद्रियो विकलेन्द्रियने विषे संख्याता भव करे छे. तथा पूर्वे कहेला चार भांगामांना उत्कृष्ट आयुष्यवाळा त्रण भांगामां आ सर्वे पृथिवीकायिकादिक ( उत्कृष्टपणे) आठ भव करे छे. ते सर्वेने जघन्यथी बे भव जाणवा. २१ टीकार्थ - विकलेंद्रियो एटले द्वींद्रिय, श्रींद्रिय अने चतुरिंद्रिय ए दरेक जीव पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि अने वनस्पतिकाय ए पांचेमांना कोइ एकने विषे एकांतरे उत्पन्न थाय तो ( उत्कर्षथी ) संख्याता भव करे छे. जेपक कोइ द्वींद्रिय जीव पृथ्वीकायमां उपज्यो, त्यांथी पाछो द्वींद्रिय थयो, त्यांथी फरीने पृथ्वीका मां उपयो. ए प्रमाणे संख्याता भव करे छे, एज प्रमागे अपकायादिकने विषेपण ख्याता भव जाणवा. तथा द्वींद्रियनी जेम ज त्रींद्रिय अने चतुरिंद्रियने माटे पण जाणवुं तथा पृथ्वीकायादिक पांच अने द्रियादिक विकलेंद्रियो जो द्वींद्रियादिक विकलेंद्रियने विषे एकांतर उत्पन्न थाय तो (उत्कर्षथी) संख्याता भव पूरे छे. तथा विकलेंद्रियने विषे उत्पन्न यता पृथ्वीका या दिकनी भावना पूर्वनी जेम जावी. अने विकलेंद्रिय माटे आ प्रमाणे जाणवुं के - कोई द्वींद्रिय जीव दिने विषे उत्पन्न थयो, त्यांची द्वींद्रियने विषे उपज्यो, त्यांथी फरीनेत्रींद्रियने विषे गयो. ए प्रमाणे एकांतर भवे संख्याता भव करे छे. ए प्रमाणे चतुरिंद्रियने बिषे उत्पन्न थता द्वींद्रियना पण
SR No.023119
Book TitlePushpa Prakaran Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvacharya
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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