SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ' ११२ ) मूळ तथा अर्थ सहित. अर्थ-अने उत्कृष्टी रीते प्राप्त थवामां घणो काळ पण को छे, ते विषयमा प्रथमकरण साक्षीभूत छे, एवी रीते कर्मप्रकृतिनी वृत्ति एटले टीकामा कल छे, ते उत्साहथी जोड़ लेबुं ॥ २२ ॥ कोइ विराधित समकीत फेरी, ते लहे मिथ्या देरी रे । ध० छीनरकलगे ते जाय, समयमतें कहेवः य रे । ६० ॥ २३ ॥ अर्थ - विराधितसम्यक्त्तवी फरीने पाछो सम्यक्त्व पाम्यो थको काल करीरीने छठी नरकसुश्री जाय छे, एम सैद्धांतिको कहे छे. ॥२३॥ आउबंधविना उच्छाहें, फिरी समकीत अवगाहे रे । ध० वैमानिकविण आउ न बांधे, कर्ममती मत सांधे रे |ध०२४ अर्थ - समकीत पति थया पछी आयुबंध थया विना फरीने समकीत प्राप्त करे, तो ते जोव वैमानिकविना वीजुं कोइ आयुष्य बांधे नहि, एम कमग्रंथीको कहे छे. कहेल छे के सम्मत्तंमि उलद्धे । विमाणवज्जं न बंधए आउ || अहवन समच जहा | अहवन बंधाउ ओ ॥ १ ॥ समकीत पतित कहे मत बांधे, उत्कृष्टी स्थिति बांधेरे । ध० भिन्न ग्रंथीने आगम ज्ञाने, स्थिति उत्कर्ष न माने रे । ध०/२५ - अर्थ - कर्मग्रंथिक मतवाला कहे के के समकीतपतित जीव कर्मनी उत्कृष्टी स्थिति बांधी शके छे, अने आगमज्ञानी (सैद्धांतिका ) भिन्न ग्रंथी धये छते कर्मनी उत्कृष्टी स्थिति मानता नथी. कहेळ छे के सैद्धांतिकमते हिविराधितसम्यक्त्वे गृहीतेनापि सम्यक्त्वेन षष्ठपृथिवीयावत् कोऽप्युत्पद्यते कार्मग्रंथीका :- वैमानिकेभ्योऽन्यत्र नोत्पद्यते तेन गृहीतेनेत्युक्तं प्रवचनसारोद्वारवृतौ अवाप्तसम्यक्लव तत्परित्यागे. कार्मग्रंथिकाः- उत्कृष्ट स्थितिः कर्मप्रकृतिर्वधाति. सिद्धां विकाभिप्रायतस्तु भिन्नग्रंथेरुत्कृष्टः स्थितिबंध एव न स्यादिति.
SR No.023119
Book TitlePushpa Prakaran Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvacharya
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy