SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निघण्टु में नहीं आ सकते। इसी आधार पर निघण्टुको ब्राह्मण ग्रन्थोंसे भी प्राचीन मानते हैं। उपर्युक्त मतोंकी समीक्षाकी जाय तो पता चलेगा कि इन मतोंमें कितनी उपयुक्तता है। दुर्गाचार्यके द्वारा उपस्थापित -'इमं ग्रन्थं गवादि देव पर्यन्तं समाम्नातवन्तः' का तात्पर्य निघण्टु जाति से है। यास्कका अभिप्राय है कि इस प्रकारके अनेक निघण्टु ग्रन्थोंका समाम्नान विभिन्न आचार्योंने किया तथा अपनी-अपनी दृष्टिके अनुसार उसका निर्वचन भी किया। यास्कके समयमें ही अनेक निघण्ट्र ग्रन्थ थे। स्वयं महर्षि यास्क अपने निरुक्तमें अन्य महर्षियोंके निघण्ट् ग्रन्थोंसे अपने निघण्ट्का अन्तर बतलाते हैं। यास्कका कहना है कि इन्द्राय वृत्रघ्ने' इन्द्रायवृत्रतुरे, इन्द्रायांहोमुचइति' इस कथनमें वृत्रघ्न, वृत्रतुर और अंहोमुच ये तीनों शब्द इन्द्रके सार्थक विशेषण हैं। कुछ निरुक्तकार इन गुणपदोंको भी देवतापद समाम्नायमें अलग-अलग पढ़ते हैं। यास्क उसे देवता कोटिमें गिनते हैं जिसकी प्रधानतया स्तुतिकी गयी हो। संज्ञा वाची शब्द भी उसीसे माना जा सकता है। अत: यास्क विशेष्यको देवता मानते हैं, विशेषणको नहीं। वेद भी कर्मोका नाम लेकर देवताओंकी स्तुति करता है यथा- वृत्रहा, पुरन्दर आदि। कुछ नैरुक्त उन कर्मनामों को भी देवता समाम्नायमें गिनते हैं। इस प्रकारके कर्मनामोंके ग्रहण करनेसे बहुत अधिक देवता हो जायेंगे। इन कथनोंसे स्पष्ट होता है कि निघण्टुके कर्ता यास्क हैं। यास्कने ही निघण्ट्रके शब्दोंका संग्रह किया। दावने, अकूपारस्य के संबंध में यह कहा जा सकता है कि इन दोनों शब्दोंको स्वतंत्र रूप से निघण्टु में लाया गया है। दोनों शब्द अलग प्रयुक्त हैं। यह भी आवश्यक हो सकता है कि पूर्वाचार्योंके अनुकरणके आधार पर यास्कने वाजस्पत्यम् तथा वाजगन्ध्यम का क्रम मन्त्रसे भिन्न मान लिया हो। प्रो. कर्मर्करके तर्कों के संबंधमें भी यही बात कही जा सकती है किसी प्रभाव के कारण वे शब्द इनके निघण्टु में आ गये हैं। पाणिनिकी अष्टाध्यायीमें भी इस प्रकार की बात पायी जाती है। सामग्रमी जी का यह मत कि समाम्नाय अनादि वाङ्मय का वाचक है, एकदम निराधार है। निरुक्त में स्वयं महर्षि यास्क ने समाम्नाय शब्द का प्रयोग नाम एवं आख्यात के लिए ग्यारह बार किया है। 'समाम्नायः समाम्नातः, स व्याख्यातव्यः १२ इस वाक्य में समाम्नाय को समाम्नान किया गया यह उपयुक्त नहीं मालूम पड़ता, क्योंकि समाम्नाय उसे कहेंगे जिसका समाम्नान किया गया है । स्वयं यास्क के द्वारा यह कहना पुनरुक्त ८५ : व्युत्पत्ति विज्ञान और गाना यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy