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________________ का मैं देवता हूं। तुम इस ऋचा के द्वारा मुझे जान सकेगा। आचार्य यास्कने शाकपूणिका उल्लेख निम्नलिखित स्थलों पर किया है. तडित शब्द के निर्वचन में विद्युत तडिद्भवतीति शाकपूणिः। स ह्यवताडयति दूराच्च दृश्यते अपि त्विदमन्तिकनामैवाभिप्रेतं स्यात्।४३ अर्थात् तडित विद्युत होती है क्योंकि वह ताडन करती है और दूर से दिखलायी देती है। किन्तु यह अन्तिक का ही नाम अभिप्राय से हो सकता है। महान् शब्दके निर्वचन में -महान् कस्मात् ? मानेनान्यां जहातीति शाकपूणिः। महनीयो भवतीति वा।४४ अर्थात् मानसे दूसरोंको छोड़ता है। यह महनीय या पूजनीय होता है। ऋत्विक् शब्दके निर्वचनमें ऋग्यष्टा भवतीति शाकपूणि :४५ अर्थात् ऋचाओंसे यज्ञ कराता है इसलिए ऋत्विक् कहलाया। शिताम शब्दके निर्वचनमें योनि शितामेति शाकपूणिः विषितोभवति।४६ अर्थात् शिताम योनि वाचक है क्योंकि वह विषित या मलसे व्याप्त रहती है। यहां विषित् से शिताम माना गया। अप्स शब्दके निर्वचनमें स्पष्टं दर्शनाय इति शाकपूणिः।४७ अर्थात् देखनेके लिए स्पष्ट होता है। अच्छ शब्दके निर्वचन में अच्छाभे:आप्तुमिति शाकपूणिः।४८ अर्थात् प्राप्त करनेके लिए ऐसा करते हैं। वैश्वानरके निर्वचनमें- अयमेवाग्निर्वैश्वानरः इति शाकपूणि: अर्थात् यही अग्नि वैश्वानर है। अग्निके संबंधमें- अयमेवाग्निर्द्रविणोदा इति शाकपूणि:/५० अर्थात् यह अग्नि ही द्रविणोदा है। इध्म के संबंधमें- अग्निरितिशाकपूणि:५१ अर्थात् इध्म अग्निका वाचक है। इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्। समूढमस्य पांसुरे। इस मन्त्रकी व्याख्यामें यदिदं किंच तद्विक्रमते विष्णुविधा निधत्ते पदं त्रेधा भावाय, पृथिव्यामन्तरिक्षे दिवि इति शाकपूणिः।५२ अर्थात् जो कुछभी यह जगत् है उसपर विष्णुपना विक्रम दिखा रहा है। वे तीन प्रकारसे पैर रखे हुए हैं, प्रथम पृथिवी पर, द्वितीय अन्तरिक्षमें और तृतीय द्युलोक में। इसी प्रकार अन्य स्थलों परभी निरुक्तमें इनके सिद्धान्तों का उल्लेख हुआ है। निरुक्तकी प्राचीन टीका निरुक्त वार्तिकसे ज्ञात होता है कि शाकपूणिने अपने निघण्टुमें शब्दोंका निश्चित क्रमसे प्रयोजन बताया है।५३ वृहद्देवतामें भी शाकपूणिका उल्लेख हुआ है।५४ यास्क अन्य निरुक्तकारोंकी अपेक्षा इनका नाम अधिक लेते हैं। इनके समयके संबंधमें निश्चित रूपसे तो कहा नहीं जा सकता लेकिन उपर्युक्त उल्लेखोंके अनुसार लगता है कि ये ८०० ई.पू. के हैं। रचनाएं :निरुक्त- विष्णु पुराणसे स्पष्ट होता है कि इन्होंने निरुक्तकी रचनाकी।५५ निरुक्त में ६१ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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