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________________ वृत्र निरुक्तमें शब्दके सम्बन्धमें कहा गया है - 'वृत्रो वृणोतेर्वा वर्ततेर्वा वर्धते र्वा ।” अर्थात् वृत्र शब्द वृञ् आच्छादने धातुसे, गत्यर्थक वृत् धातुसे या वृद्धयर्थक वृध् धातुसे निष्पन्न होता है। गत्यर्थक वृत् धातु निघण्टु पठित है। वह आकाशको आच्छादित रखता है, वह सर्वत्र गति करता है, वह खूब वृद्धिको प्राप्त होता है। फलतः वह वृत्र कहलाता है। वेद एवं ब्राह्मणोंके निर्वचनमें वृ आवरणे धातुसे ही वृत्र शब्द निष्पन्न माना गया है जबकि बादके निर्वचनों में कई धातुकी कल्पनाकी गई है। लगता है कि यह विविध कर्मोंका परिणाम है । 30 समुद्र जलधिका वाचक है। समुद्रका निर्वचन शतपथ ब्राह्मणमें प्राप्त होता है - 'अयं वै समुद्रो योऽयं पर्वत एतस्माद्वैसमुद्रात्सर्वे देवा सर्वाणि भूतानि समुद्द्रवन्ति’° इस उद्धृतांशके अनुसार सम् + उत् + द्रुगतौ धातुका योग है। सामवेदके दैवत ब्राह्मणमें समुद्रके संबंधमें कहा गया है - 'यद् यत्समवद्रवन्त तस्मात्समुद्र उच्यते ।'' इसके अनुसार समुद्र शब्दमें सम् + अव + द्रु गतौ धातुका योग है। सम् का उत् में आदेश माना जायेगा । निरुक्त में भी समुद्र शब्दका निर्वचन हुआ है - इसके अनुसार सम् + उत् + द्रुधातु, सम् + अभि + द्रु धातु, सम् + मुद् धातु, सम् + उद् (जल) तथा सम् + उन्दीक्लेदेने धातुका योग है। यह तरंगोंसे ऊपरकी ओर उठता है। इसमें जल सब ओरसे इकट्ठे होकर अभिमुख होते हैं, इसमें जलचर प्रसन्न रहते हैं, यह बहुत जलवाला होता है या यह भिगोता रहता है 1 I इन निर्वचनोंसे स्पष्ट है समुद्र शब्दमें प्रायः जलके तरंगित होनेका आधार प्रधान रूपमें माना गया है। निरुक्तमें समुद्रके अधिक निर्वचन प्राप्त होते हैं जो उसके विविध पक्षोंको उद्भासित करते हैं । - राजन् शब्द अधिपतिका वाचक है। इसका शाब्दिक अर्थ होता है प्रकाशित होने वाला । वेदोंमें वरूण आदि देवोंके लिए राजा शब्द का प्रयोग किया गया है। ऋग्वेदमें राज् धातु से ही राजन् शब्दका निर्वचन प्राप्त होता है ।” अथर्ववेद में कहा गया है – ‘अयं देवानामसुरो विराजति वशा हि सत्या वरूणस्य राज्ञः यहां विराजति क्रियापदमें राज् धातुका योग है राज्ञः पद भी राज् धातु के राजन् शब्द से ही निष्पन्न है। यहां राज् धातु दीप्त्यर्थक न होकर ऐश्वर्यार्थक है । निरुक्त में राजन् शब्दको राज् दीप्तौ धातुसे निष्पन्न माना गया है । 35 कालिदास ने रघुवंश महाकाव्य में 'राजा प्रकृति रंजनात्' कह कर राजन् ४८ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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