SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 478
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१२) अधोराम :- यह सावित्र का वाचक है। सावित्र काल विशेष है इस समय पृथिवी पर अन्धकार रहता है। निरुक्तके अनुसार अधोराम : सावित्र: इति पशुसमाम्नाये विज्ञायते। अर्थात् पशुके अर्थमें अधोराम सावित्र पक्षी विशेष खंजन का वाचक है क्योंकि उसका भी पैर काला होता है। रामका अर्थ होता है कृष्ण। नीचेका भाग काला है जिसका उसे अधोराम कहा जायगा। सावित्र काल एवं खंजन पक्षीके अधो भागमें कृष्णत्वकी समानता है।२० रामका अर्थ कृष्ण इसलिए होता है क्योंकि कहा गया है - अग्निका चयन करके रामा अर्थात् शूद्राका संगम नहीं करना चाहिए। शुद्रा स्त्रीको कृष्ण जातीया कहा गया है अविधा ग्रस्त होनेके कारण वह कृष्ण वर्ण की कहलाती है। फलतः रामा एवं कृष्णा पर्याय वाची शब्दहो गये। इसी समानताके आधार पर समका अर्थ कृष्ण हो गया। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। (१३) कृकवाकु :- इसका अर्थ होता है पक्षी विशेष, मुर्गा। निरुक्तके अनुसार कृकवाकोः पूर्वं शब्दानुकरणं वचेरुत्तरम्१४ इस शब्दका पूर्व भाग कृक शब्दानुकरण है तथा उत्तर भागमें वच् धातुसे निष्पन्न वाकुः शब्द है। इसका अर्थ होगा कृक कृक शब्द करने वाला। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। यह निर्वचन शब्दानुकरण सिद्धात पर आधारित है। व्याकरणके अनुसार कृक + वच् + उण प्रत्यय कर कृकवाकुः शब्द बनाया जा सकता है।२२ (१४) तुर :- यह यमका वाचक है। निरुक्तके अनुसार तुर इति यम नाम तरतेर्वाप तुर यम का नाम है, यह शब्द तृप्लवनसंतरणयोः धातुके योगसे निष्पन्न होता है, क्योंकि वह पार करने वाला है। (२) त्वरतेर्वा१४ अर्थात् तुर: शब्दमें त्वर् संभ्रमे धातुका योग है, क्योंकि वह शीध गति वाला है।श्त्वरका सम्प्रसारण रूप तुर है त् -व-उ-र = तुर। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानकै अनुसार इसे संगतमाना जायगााव्याकरणके अनुसार तुर् +क प्रत्यय कर तुरः शब्द बनायाजा सकता है। (१५) सूर्य :- इसका अर्थ होता है - आदित्य। निरुक्तके अनुसार (१) सरतेर्वा१४ यह शब्द सृ गतौ धातुके योगसे निष्पन्न होता है, क्योंकि वह अन्तरिक्षमें गमन करता है। (गमन करता सा दीख पड़ता है) (२) सुवतेर्वा१४ यह शब्द सू प्रेरणे धातुके योगसे निष्पन्न होता है, क्योंकि यह प्राणियों को अपने अपने कर्मोमें लगने के लिए प्रेरित करता है। (३) स्वीर्यतर्वा१४ इसके अनुसार यह शब्द सु + ईर गतौ धातु के योग से निष्पन्न माना जायगा। वाय के द्वारा यह प्रेरित होता है।२४ ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार प्रथम निर्वचन का ४८१:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy