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________________ शब्दमें सु + अर्चिस् का योग है। प्रथम एवं तृतीय निर्वचन भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे अपूर्ण है। स्वर्क शब्द रथके विशेषणके रूपमें ऋग्वेदमें प्रयुक्त है।२७ व्याकरणके अनुसार इसे सु + अर्च् + क्विप् कर बनाया जा सकता है। (१४) तृष्णक :- यह शब्द ग्रीष्मका वाचक है। निरुक्तके अनुसार तृष्णक् तृष्यते:२५ यह शब्द तृष् पिपासायाम् धातुके योगसे निष्पन्न होता है- तृष् + नक् तृष्णक। इसमें पिपासा की वृद्धि रहती है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार तृष् पिपासायाम् + नजिङ् प्रत्यय कर तृष्णक् शब्द बनाया जा सकता है।२८ लौकिक संस्कृतमें यह शब्द लोभी तथा अभिलाषुक के अर्थमें भी प्रयुक्त होता है।२९ (१५) उदन्यु :- इसका अर्थ होता है जलाभिलाषी। निरुक्तके अनुसारउदन्युरूदन्यते:२५ इस शब्दमें उदन्याउः प्रत्ययका योग है। उदककी चाह उदन्यति से उदन्य + उ: = उदन्यु:। उदक जलका वाचक है। जल चाहने वाला उदन्यु कहलायगा। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार उदक + क्यच-उदन्य-ड्ः उदन्युः माना जा सकता है। यास्कके समयमें यु प्रत्यय कामयमान अर्थमें काफी प्रचलित था। इदंयु, अध्वर्युः आदि इसी प्रकारके शब्द हैं। पाणिनिके समय इस प्रत्ययका प्रयोग सीमित हो गया था।३० (१६) ऋभव :- यह संज्ञापद है। ऋभु शब्दका बहुबचन रूप ऋभव: है। आंगिरिस ऋषिके पुत्रका नाम ऋभु था।३१ निरुक्तके अनुसार (१) ऋभव उरु भान्तीति वा२५ वे अधिक दीप्त होते हैं। इसके अनुसार इस शब्दमें उरुभा धातुका योग है। (२) ऋतेन भान्तीतिवा ये यज्ञ से प्रदीप्त होते हैं। इसके अनुसार इस शब्दमें ऋत + भा दीप्तौ धातुका योग है। (३) ऋतेन भवन्तीति वा ये यज्ञसे समन्वित होते हैं। इसके अनुसार इस शब्दमें ऋत् + भूधातुका योग है। आदित्यरश्मि को भी ऋभु कहा जाता है। उपर्युक्त निर्वचन आदित्यअर्थमें भी संगत होगा। अन्तिम निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधारसे युक्त है। भाषावैज्ञानिक दृष्टिसे इसे संगत माना जायगा। शेष निर्वचनोंका अर्थात्मक महत्त्व है। व्याकरणके अनुसार ऋ +भू +डुः प्रत्यय कर ऋमुः शब्द बनाया जा सकता है।३२ . (१७) अंगिरस :- यह एक ऋषि का नाम है। निरुक्तके अनुसार अंगारेष अंगिरा३३ अर्थात् अंगिरा ऋषि अंगारे से उत्पन्न हुए। यह निर्वचन ऐतिहासिक महत्व रखता है। एकादश अध्याय में यास्क ने इसे पूर्व व्याख्यात कहा है। भाषा ४६८:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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