SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 455
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सविता कहा जाता है। गायत्री मन्त्र का सवितः शब्द आदित्यका ही वाचक है। आदित्य वाचक सविता शब्दके लिए भी उपर्युक्त निर्वचन ही उपयुक्त है। सदृश कर्मके कारण सविताको आदित्य कहा गया है।६५ निरुक्तमें पार्थिव अग्निको भी सविता कहा गया है, क्योंकि वह अग्निहोत्र आदि कमोंका उत्पादक है, सभी का प्रेरक है। उपर्युक्त निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अत्मिक आधारसे युक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। लौकिक संस्कृतमें आदित्यके अर्थमें ही सविताका प्रयोग प्राय: देखा जाता है। व्याकरणके अनुसार-सू प्रेरणे धातुसे तृच५६ प्रत्यय कर सवितृ- सविता शब्द बनाया जा सकता है। (३६) हिरण्यस्तूप :- यह एक सूक्त विशेषका नाम है। निरुक्तके अनुसार १. हिरण्यस्तूपो हिरण्यमयस्तूपो५८ हिरण्यस्तूप का अर्थ होता है हिरण्यमय स्तूप अर्थात् तेजो मय पुञ्ज। यह सामासिक आधार रखता है। इसमें कर्मधारय समास है। २- हिरण्यमय: स्तूपोऽस्येति वा५८ हिरण्यमयस्तूप तेजोमय पुञ्ज है जिसको इसे हिरण्यस्तूप कहेंगे। यह भी सामासिक आधार पर आधारित है। इसमें वहतीहि समास है। यास्कने सामासिक विग्रहके द्वारा इसका अर्थ स्पष्ट किया है। भाषा विज्ञानके अनुसार यह संगत है। (३७) स्तूप :- यह समूहका वाचक है। निरुक्तके अनुसार स्तूप: स्त्यायते:५८ यह शब्द स्त्यै शब्द संघातयोः धातुके योगसे निष्पन्न होता है। इसका अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। ध्वन्यात्मक आधार पूर्ण उपयुक्त नहीं। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे पूर्ण संगत नहीं माना जायगा। व्याकरण के अनुसार स्तु स्तुती धातु से प:७१ प्रत्यय कर स्तूपः शब्द बनाया जा सकता है। सायणने स्त्यै धातुसे ही इसको निष्पन्न माना है।७२ (३८) असुरत्वम् :- इसका अर्थ होता है-प्रज्ञाक्ता, प्राणक्ता तथा धनक्ता। निरुक्तके अनुसार असुरत्वमेकं प्रज्ञावत्वं वान्नवत्वं वापिप८ अर्थात अस प्रज्ञा या प्राणको कहते हैं। असुर में स्थित र प्रत्यय मतवर्थ का है। अस प्रज्ञाका नाम है क्योंकि प्रज्ञा अनर्थों को दूर कर देती है। पुनः इस प्रज्ञामें समी पदार्थ रख दिए जाते हैं।६७ अथवा यास्कके अनुसार वसुरत्व ही असुरत्व हो गया है। वसुरत्व का आदि अक्षर व लोप होने पर असुरत्व बचा। वसुरत्वका अर्थ होता है धनवत्ता। वसु धनका वाचक है। यहां असुर शब्द देवताका वाचक है कालान्तरमें असुर शब्द सुरविरोधीका वाचक हो गया है। निरुक्तके तृतीय अध्याय में भी असुर शब्द का विवेचन हआ है।६८ भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे भी यह निर्वचन अपूर्ण है। व्याकरणके अनुसार अस +उरन प्रत्यय कर असुर शब्द बनाया जा सकता है।६९ ऋग्वेद में ही असुरशब्द सुर विरोधीके रूपमें प्रयुक्त ४५८:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy