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________________ समदो वात्तेः अर्थात् यह शब्द सम् उपसर्ग पूर्वक अद् मक्षणे धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि संग्राममें एक व्यक्ति दूसरे को मार डालते हैं, संग्राम व्यक्तियोंको पूर्ण रूपमें खा जाता है। (२) सम्मदो वा मदतेः अर्थात् सम् उपसर्ग पूर्वक मदी हर्षे धातुके योगसे यह शब्द निष्पन्न होता है। सम् + मद्- सम्मदः । युद्ध में हर्षके साथ एक दूसरे से लड़ते हैं। इन निर्वचनोंका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आंधार उपयुक्त है भाषा विज्ञानके अनुसार इन्हें संगत माना जायगा । लौकिक संस्कृतमें उक्त अर्थमें इसका प्रयोग प्राय: नहीं देखा जाता। (२९) ज्या :- इसका अर्थ होता है धनुषकी डोरी । निरुक्तके अनुसार (१) ज्या जयतेर्वा३२ अर्थात् यह शब्द जि जये धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि युद्धमें यह विजय प्राप्त कराती है। (२) जिनातेर्वा अथवा यह शब्द ज्या क्योहानौ धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि यह अनेकों जीवनका हरण करती है। (३) प्रजावयति इषून् इति वाश्२ अथवा यह शब्द जव् गतौ धातुके योग से निष्पन्न होता है। यह वाणोंको फेंकती है चलाती है वाण इसीसे गतिमान होता है। सभी निर्वचनोंका अर्थात्मक आधार संगत है प्रथम एवं द्वितीय निर्वचन ध्वन्यात्मक आधार से युक्त हैं। प्रथम दोनों निर्वचनोंको भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे संगत माना जायगा । व्याकरणके अनुसारज्या+ड+टाप्-ज्या शब्द बनाया जा सकता है। (३०) इषु :- यह वाणका वाचक हैं। निरुक्तके अनुसार ( १ ) इषुरीषतेर्गति कर्मणो वध कर्मणोवा३२ अर्थात् यह शब्द गत्यर्थक इष् धातुके योगसे निष्पन्न होता है, क्योंकि यह गतिमान होता है या चलता है या फेका जाता है, या यह वघार्थक इष् धातुके योगसे निष्पन्न होता हैं क्योंकि यह प्राणियोंका वध करता है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार ईष् धातुसे उ४° प्रत्यय कर इषुः शब्द बनाया जा सकता है। ર . (३१) कशा :- यह चाबुक तथा वाणीका वाचक है। निरुक्तके अनुसार चाबुकके अर्थ में - (१) कशा प्रकाशयति भयमश्वाय ३२ अर्थात् यह घोड़ेको भय दिखाती है। चावुकसे घोड़ेको भयभीत किया जाता है। इसके अनुसार कशा शब्दमें काशृ दीप्तौ धातुका योग है काशृ कशा । (२) कृष्यतेर्वाणूभावात् अर्थात् अणुभाव अर्थ रखने वाले कृश् धातुके योगसे यह निष्पन्न होता है क्योंकि यह पतली होती है! वाणीके अर्थ में कशः शब्दके निर्वचनमें यास्कका कहना है कि बाक् पुनः प्रकाशयत्यर्थान्३२ अर्थात् वाणी वाचक कशा अर्थों को प्रकाशित करती है। इसके अनुसार भी इसमें काशृ दाप्तौ धातुका योग माना गया। (२) खशया यह मुखाकाश में सोने वाली है। वाणी आकाशका गुण है । ४१ ४३१: व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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